मनुष्यता जहां खो जाती है

साहित्य

अरुण कान्त शुक्ला

शब्द जहां थोथे पड़ जाते हैं,
संवेदना जहां मर जाती है,
उस मोड़ पर आकर खड़े हो गए हम,
मनुष्यता जहां खो जाती है,
दर्द बयां करने से क्या होगा यहाँ,
मुरदों की ये बस्ती है,
लाशें बिकती हैं महंगी यहाँ,
जिन्दों की जाने सस्ती हैं,
इंसान रेंगता यहाँ,
दो हाथों पैरों पर,
सियार भेड़िये चलते दो पांवों पर,
अजब ये बस्ती है,
सांस लेने को अगर कहते हो ज़िंदा रहना,
तो हम ज़िंदा हैं,
पर, नहीं हमारी कोई हस्ती है,
सोच में जिनकी बसा शौचालय,
उन्हीं की आज हस्ती है,

जो ज़िंदा हैं वो बोलेंगे,
जो बोलेंगे वो मरेंगे,
है ये रीत अजब,
पर, यही रीत आज चलती है.

लेखक सामाजिक सरोकारों पर सक्रिय स्वतंत्र पत्रकार एवं साहित्यकार हैं.

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