
भारतीय समाज में आधी दुनिया की हकीकत
राष्ट्रीय, आधी दुनिया Jul 16, 2016स्मिता कुमारी
भारतीय महिलाओं का उनके स्वयं के अस्तित्व को लेकर आन्दोलन उनके घर से शुरू होती है, जो महिलाएँ इसे अस्वीकार करती हैं वह किसी ना किसी रूप में पुरुषप्रधान समाज की गुलामियों को स्वीकार करती है। महिला एक प्रकार से घुमंतू जनजातियों की तरह जन्म से मृत्यु तक अपना जीवन व्यतीत कर देती है। पिता का घर, पति का घर, पुत्र का घर. ये सभी घर संविधान के अनुसार उसके भी हैं, मगर समाज के नजर में वह बेघर है। वह इन्ही घरों को सजाने-सँवारने में सारी उमर गुजार देती है फिर भी व्यवहार में ये सभी घर उसके अपने नहीं होते।
इसको समझने के लिए समाज की रूपरेखा को समझना होगा। जिस पिता के घर में महिला, बेटी-बहन बनकर परिवार का परिभाषा सीखती है वही पिता और भाई यह कहते हैं कि ”हर बेटी का घर ससुराल है, इस घर में हिस्सा लोगी तो हम पर समाज हँसेगा” और ये भी "कि मायके से बेटी की डोली और ससुराल से अर्थी निकलती है"।
क्या संविधान से और बेटी से ज्यादा महत्वपूर्ण समाज होता है, जो संविधान का अपमान कर बेटी का हक छिनना सीखता है? अगर बेटी विधवा हो जाए तब तो और भी बोझ होती है। उसे अपने घर ले जाना तो दूर उसे देखने भी नहीं आते कि कहीं ससुराल वाले साथ ना भेज दें, बस फोन पर कभी-कभी समझा दिया जाता है कि “अब तुम विधवा हो, किसी गैर से बात मत करना, जिससे तुम्हें ससुराल से अपमानित कर के निकाला जाए। वही रहो, वही तुम्हारा घर है, जबकि बहु मर जाए तो बेटे की तत्काल शादी करवाकर बेटे की दोनों पत्नियों से हुए बच्चे को कुल का वंश की तरह पालेंगे। पोतियों के लिए फिर से पराये धन का नियम लागू हो जाता है।
ससुराल वाले हर बात में ताने में कहते हैं कि “हमारे यहाँ ऐसा ही होता है रहना है तो रहो वरना अपने घर चले जाओ।” फिर नए तरीके से महिला खुद को ढ़ालती है। जब तक पति है सास को मां की तरह सेवा करना, ससुर को पिता, जेठ को बड़े भाई, देवर को बेटा, नन्द को बेटी-बहन मानना सिखाया जाता है, लेकिन जब पति का देहांत हो जाए तो ये सारे माँ-पिता, बड़े भाई आदि रिश्ते भी मर जाते हैं क्योंकि उन्हें वह रिश्ता तभी तक स्वीकार होता है जब तक उनका बेटा होता है। फिर वह उस महिला पर इज्जत और समाज का भय दिखाकर कई बंदिशें लगाते हैं। मगर उसकी कोई ख़ास अहमियत नहीं रह जाती। उसे उस घर में भी पराया जैसा महसूस कराया जाता है।
इन सभी का रूख बदल कर जब वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है तब होता है उसका अपना घर और अपना रिश्ता भी। जो लोग खुल कर इस लड़ाई में उसका साथ देते हैं वह अपने होते हैं, मगर लड़ाई के समय छुप जाने वाले और जीत के बाद वापस आने वाले केवल स्वार्थी रिश्तें होते हैं। अगर महिला को अपना अस्तित्व बचना है तो लड़ना ही होगा, अपने-अपनों के लिए और अपने घर के लिए अपनों से ही लड़ाई।
स्मिता कुमारी पुनर्वास मनोवैज्ञानिक हैं और सत्यमेव मानसिक विकास केन्द्र, भोपाल की डायरेक्टर हैं. संपर्क: . स्मिता कुमारी से सत्यमेव मानसिक विकास केन्द्र के facebook पेज https://www.facebook.com/SatyamevMansikVikasKendra/?fref=ts के जरिये भी संपर्क किया जा सकता है.अगर आपकी रूचि मानसिक विषयों में है तो आप इस पेज को LIKE कर नियमित अपडेट पा सकते हैं.