चुने हुए विरोध और चुनी हुई चुप्पियों के बीच महिला अस्मिता
खरी बात, आधी दुनिया Jul 23, 2016विनय द्विवेदी
राहत इंदौरी साहब की एक शेर याद आ रही है "बन के एक हादसा बाजार में आ जाएगा, जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा।" इस शेर को सीधे पढ़िए तो भी सटीक है और घुमा फिरा कर पढ़िए तो भी सटीक होगी। आशय ये है कि दलित और महिला के सम्मान का कोई भी मुद्दा हो वह अपनी अपनी सहूलियत के चश्में से ही देखा जाता है. इसीलिए दयाशंकर सिंह और नसीमुद्दीन सिद्दीकी का बदजुबानी दुर्व्यवहार हमारे समाज में अपनी अपनी चुप्पी और अपने अपने विरोध के बीच साफ़ बंटा दिखाई दे रहा है. और इसी के साथ पुरुष कुंठाओं के बीच महिला अस्मिता का सवाल भी महिला की अपनी सहूलियत से तय हो रहा है. यही विडम्बना है हमारे सामाजिक ढाँचे की. इसीलिए मैं सदैव कहता हूँ कि हम सब व्यवहार में "दोगले" (माफ़ कीजिये ये शब्द भी महिला के सम्मान से जुड़ा है लेकिन मेरे शब्दकोष में दूसरा सटीक शब्द नहीं है.) हैं.
ऐसा नहीं है कि भाजपा नेता दयाशंकर सिंह कोई पहले और अंतिम व्यक्ति हैं जिसने महिला को लेकर निहायत अपमानजनक और निंदनीय बात कही हो. इससे पहले भी बदजुबानों की लम्बी चौड़ी फेहरिश्त है. क्या किसी समुदाय, विचार, जाति और असहमतियों पर निहायत ही अपमानजनक टिप्पणियां नहीं हुई हैं? क्या हम अपने सामाजिक ढाँचे की सड़ांध की बदबू को समझने के लिए तैयार है की आखिर इससे कैसे निजात मिले? क्या ये सच नहीं है की इस बदबू को भी हमारी राजनीति वोटों के बाजार में अपने अपने तरीके के उत्पाद तैयार कर बेंच देती है?
सामाजिक बदलाव को आसानी से स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं है. यह "जागरण काल" का संक्रमण है तो सामाजिक पाले खिंचेंगे ही. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा तो वोटों की फसल कटेगी कैसे। अगर आपको किसी मुद्दे पर ट्रैंड समझाना हो तो सोशल मीडिया सबसे आसान और सर्वसुलभ प्लेटफार्म है. यहाँ आपको गम्भीर विमर्श के साथ ही अगम्भीर लोग और तमाम सारे दयाशंकर सिंह और नसीमुद्दीन सिद्दीकी सब मिलेंगे।
अब बात करते हैं "उत्तरप्रदेश" में महिला अस्मिता पर हो रही राजनीति की. उत्तरप्रदेश में कुछ महीनों बाद चुनाव होने है तो इसलिए राजनीति कब कौन से रंग में नजर आ जाये इसका अनुमान लगाना मुश्किल है. चार दिन पहले तक भाजपा खुद को प्रदेश की चुनावी राजनीति में सबसे ऊपर समझ रही थी वो दयाशंकर सिंह की बदजुबानी के सेल्फ गोल से बैकफुट पर पहुँच गई. दूसरे दिन लखनऊ में जमा हुई बसपा की भीड़ के बीच से उछले कुछ आपत्तिजनक नारों ने भाजपा को फिर से मौक़ा दे दिया और मायावती के खिलाफ स्वाति सिंह मैदान में आ गईं. अब महिला अस्मिता का मुद्दा 2017 के उत्तरप्रदेश के चुनाव के नफे-नुक्सान पर टिक गया है. भाजपा को भी मौका मिला गया और वो भी मैदान में कूद पड़ी और प्रदेश भर में प्रदर्शन कर सवर्ण वोटों के ध्रुवीकरण में जुट गई है. पहले महिला अस्मिता को लेकर यही काम मायावती कर चुकी हैं.
कुछ लोग खुद को निरपेक्ष बता कर राजनीति कर रहे हैं. उनका कहना है की दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह ने मैदान में आकर मायावती को बैकफुट पर ला दिया है. याद दिलाना जरुरी है की कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिन पर बात करते समय आप नंगी तलवार पर चल रहे होते हैं, जरा सा संतुलन बिगड़ा की हलाल हो गए. मायावती पर अभद्र और अपमानजनक टिप्पणी के बाद स्वाति सिंह मैदान में कूद पड़ती हैं अपने सम्मान के लिए. लखनऊ के नारेबाजी की घटना के बाद मायावती का बयान राजनीति से ग्रस्त साफ़ दिखाई देता है, जब वे नारेबाजी करने वालों को अपना कार्यकर्ता मानने से इंकार करते हुए इसे कुछ असामाजिक तत्वों को हरकत बताती हैं. स्वाति सिंह के मोर्चा सम्भालते ही सवर्ण मानसिकता से ग्रसित लोग भी मैदान में कूद पड़ते हैं और भाजपा को समझ में आ जाता है की मौका मिल गया है सवर्ण गोलबंदी का और वो भी मैदान में आ डटती है.
ऐसे में क्या यहाँ यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि स्वाति सिंह के अंदर की औरत तब कहाँ थी जब उनका पति एक औरत की अस्मिता को बदजुबानी से तार तार कर रहा था. तब स्वाति सिंह के लिए दयाशंकर सिंह "भला है बुरा है जैसा भी मेरा पति तो मेरा देवता है." थे. व्यवहार का दोगलापन यही होता है. नहीं तो भाजपा ने जिस तरह दयाशंकर सिंह को पार्टी से ठीक ही निकाल दिया है वैसा भाजपा ने पहले के बदजुबान नेताओं के साथ तो नहीं किया और ना ही मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी से निकाल दिया।
(लेखक खरीन्यूज के प्रधान सम्पादक हैं)