दाना मांझी के बहाने: एकांगी होता समाज और संवेदनाओं की संकुचित होती परिधि

खरी बात

विनय द्विवेदी

पहले भी कालाहांडी भूख से मौतों को लेकर सुर्ख़ियों में रहा है. अब एक आदिवासी महिला की अस्पताल में मौत के बाद उसके शव को उसके घर तक ले जाने के लिए शासन, प्रशासन एक वाहन उपलब्ध नहीं करा सका। महिला के पति को दस किलोमीटर तक पैदल शव कंधे पर ले जाना पड़ा। लोग तमाशबीन बने रहे और किसी की संवेदनाएं नहीं जागी। शर्मसार होना चाहिए हमारे समाज को जो इस हद तक एकांगी और संवेदनहीन हो गया है। दाना माझी को अपनी पत्नी अमंग देई के शव को कंधे पर लादकर ले जाना पड़ा।

गौरतलब है कि उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार ने ‘महापरायण’ योजना शुरु की है। इसके तहत शव को सरकारी अस्तपताल से मृतक के घर तक पहुंचाने के लिए मुफ्त परिवहन की सुविधा दी जाती है। अस्पताल से माझी का गाँव 60 किलोमीटर दूर है। तक़रीबन 10 किलोमीटर तक दाना माझी अपनी पत्नी के शव को कंधे पर लेकर पैदल चला है। इसके बाद पत्रकारों ने कलैक्टर पर दबाव बनाकर माझी को एम्बुलेंस उपलब्ध करवाई।

मीडिया कर्मियों को हमेशा कठघरे में खड़ा करने वाले लोगों को इस तरह की घटनाओं में पत्रकारों की भूमिका को भी देखना चाहिए। मीडिया के चरित्र में चहुंओर कितना भी क्षरण हुआ हो लेकिन मीडिया का एक हिस्सा है जो आज भी सरोकारों और संवेदनाओं से सराबोर है।

बड़ा सवाल ये है कि क्या इस तरह की घटना पहली है- नहीं। इससे पहले भी कई बार गरीबों के शव कभी कन्धों तो कभी साइकिल पर रख कर ले जाए जाते रहे हैं। ये घटना अंतिम भी तो नहीं है। आज मीडिया की सुर्ख़ियों में फिर से कालाहांडी है लेकिन कितने दिनों तक। अब तो खबरें आती और जाती रहती हैं। ख़बरें भले तात्कालिक असर करती हैं लेकिन फिर विलोपित हो जाती हैं अखबारों से, टीवी स्क्रीन और समाज की चेतना से भी। सरकारें भी भूल जाती हैं। समाज चूँकि एकांगी होता जा रहा है इसलिए उसकी संवेदनाओं की परिधि लगातार संकुचित होती जा रही है। तो फिर सवाल ये भी है कि आखिर क्या सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा। शायद हाँ। क्योंकि हमारी राजनितिक सामाजिक व्यवस्था के दर्शन में गरीब के लिए व्यवहार में कोई स्थान है ही नहीं।

जाति, धर्म, क्षेत्र और भी बहुत से मुद्दे पर राजनीति करने वाले दलों और नेताओं की आँखों में पानी बचा ही नहीं है। गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है ये ना जाति देखती है ना धर्म, ना ही कुछ और ही। विडम्बना देखिये की गरीबी कभी एजेंडे में आ ही नहीं पाई जबकि भारत गरीब मुल्क कहा जाता रहा है और अधिकतर वोटर गरीब है जिनके वोटों से सरकारें बनती हैं। लेकिन 70 वर्ष की आज़ादी के बावजूद समाज को गरीबी से आज़ादी अब तक भी नहीं मिल सकी।

योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011-12 के दौरान देश में गरीबों की संख्या वर्ष 2004-05 के 37.2 प्रतिशत से घटकर 21.9 प्रतिशत पर आ गई है। आर्थिक विशेषज्ञों की राय में गरीबी की रेखा में एक स्थायित्व होना चाहिए। हर बार इसे नए सिरे से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े। आधिकारिक आंकड़ों की मानें, तो भारत की 37 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है. जबकि एक दूसरे अनुमान के मुताबिक़ ये आंकड़ा 77 प्रतिशत हो सकता है।

सरकारी आंकड़े अब बहुत चातुर्य से पेश किये जाते हैं। इसीलिए उदारीकृत अर्थव्यवस्था से कथित आर्थिक विकास को इस तरह से पेश किया जाता रहा है कि जैसे भारत में अब गरीबी है ही नहीं। अगर उदारीकरण से विकास तेज हुआ है, ये मान भी लिया जाए तो क्या इसके दुष्परिणामों पर बात नहीं होनी चाहिए।

1992 के बाद से देश ने कई मामलों में विकास किया है लेकिन विकास के इस दर्शन का भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव पर बात क्यों नहीं होती। क्यों नहीं हमारे सामाजिक चरित्र के बदलाव पर बात होती है. सामाजिक विकास में परिवार इकाई छोटी होगी ही लेकिन क्या हमारा समाज एक आदर्श समाज के मापदंडों से तेजी से विमुख नहीं होता जा रहा। अगर समाज की चेतना व्यक्तिवादी होगी तो उसके दुष्परिणाम देश, समाज और व्यक्ति को भुगतने ही होंगे। फिर ऐसे में आदर्श, देशभक्ति, चरित्र, संवेदना की उम्मीद किससे करेंगे?

दाना माझी और उसकी 12 वर्षीय बेटी 10 किलोमीटर की यात्रा में जिस पीड़ा से गुजरे हैं उसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उद्वेलित करने वाली घटनाओं पर विमर्श नतीजे पर नहीं पहुंचता क्योंकि ये सामाजिक और राजनितिक आंदोलन में नहीं बदल पाते। हमारी राजनितिक व्यवस्था भी तो यही चाहती है कि आम लोग चेतना शून्य होकर सोते रहें। अगर हम सोते रहेंगे तो दाना मांझी के साथ अन्याय होता रहेगा। समय आगे बढ़ेगा और दूसरे दाना मांझी के साथ अन्याय होगा और आप सोचेंगे कि ये तो होता रहता है। फिर एक दिन आपका भी नम्बर आएगा और आप चारो तरफ देखेंगे, मदद और सहारे के लिए लेकिन आप अकेले खड़े होंगे।

(लेखक खरीन्यूज के प्रधान सम्पादक हैं) 

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