...... तो अब पत्रकारिता को भी फांसी चढ़वाइएगा क्या ?

खरी बात

विनय द्विवेदी

भक्ति का दौर है, अब कुछ भी हो सकता है? कहने का आशय यह है कि दो साल पहले तक हर क्षेत्र में समर्थक और विरोधी होते थे लेकिन "पाले" नहीं खिंचे थे. अब खिंच गए हैं, और पत्रकारिता में भी. चाहे संस्थाओं के मालिक हों या पत्रकार, कमोबेश सब के अपने एजेंडे हैं। जी हाँ सबके अपने एजेंडे हैं और इन्हीं में वे पत्रकार भी हैं जिनके एजेंडे में पत्रकारिता अभी भी हैं. ताजा मामला चर्चित एंकर अर्णब गोस्वामी ने अपने शो न्यूज़ ऑवर में कश्मीर मुद्दे पर pro pak doves silent शीर्षक से उठाया है. अब बात निकली है तो दूर तलक जायेगी।

वैसे तो इस तरह की बहसें पहले भी होती रही हैं लेकिन आमतौर पर ये दलों के समर्थन और विरोध तक ही सीमित रहती थी लेकिन अब चूँकि दौर ही ऐसा है जिसमें असहमति को सीधे देशद्रोह से जोड़ने की सोची, समझी और संगठित कोशिश जारी है। तो फिर पत्रकारिता इससे अछूती भला रह कैसे सकती थी? अर्नब ने बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई सहित पत्रकारों की बड़ी जमात की पत्रकारिता पर ही सवाल नहीं उठाये बल्कि उन्हें पाकिस्तान और जम्मू कश्मीर के आतंकवादियों से सहानुभूति रखने तक जोड़ दिया है। इससे पहले भी JNU मामले में भी इसी तरह की कोशिश हो चुकी है. खैर, सोशल मीडिया पर इस समय यह मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है।

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने फेसबुक पर लिखा की, "मुझे लगता है अर्णब ने सम्वाद को, सम्वाद में मानवीय गरिमा, शिष्टता और पारस्परिक सम्मान को चौपट करने में भारी योगदान किया है। हम बोलने के अधिकार की बहुत बात करते हैं, पर उसका वध देखना हो तो ‘न्यूज़ आवर’ शायद सर्वश्रेष्ठ जगह होगी। मैं अर्णब के आग्रहों-दुराग्रहों की बात नहीं करता (किस पत्रकार के नहीं होते?), लेकिन एक शोर पैदा करने की हवस में वे किसी ‘मेहमान’ को चुन कर थानेदार की तरह हड़काएँगे, किसी को बोलने न देंगे। माना कि यह व्यापार है, पर व्यापार और चैनल भी करते हैं। देखना चाहिए कि किसकी मर्यादा कहाँ है। इसके अलावा मेरा स्पष्ट सोचना यह है कि सांप्रदायिकता, छद्म राष्ट्रवाद, कश्मीर और पाकिस्तान आदि अत्यंत नाज़ुक मसलों पर निहायत ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया आग भले न लगाए (जिसकी लपटें परदे पर अर्णब को बहुत प्रिय हैं), लोगों में दुविधा, द्वेष, अलगाव, रंजिश और घृणा ज़रूर पैदा कर सकता है। क्या इसे हम सार्थक पत्रकारिता कहेंगे?”

रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ पर ‘सांप्रदायिकता का नया नाम है राष्ट्रवाद’ शीर्षक से आर्टिकल लिखा है। इसमें उन्होंने लिखा, ‘आप जो टीवी पर एंकरों के मार्फ़त उस अज्ञात व्यक्ति की महत्वकांक्षा के लिए रचे जा रहे तमाशे को पत्रकारिता समझ रहे हैं वो दरअसल कुछ और हैं। आपको रोज़ खींच खींच कर राष्ट्रवाद के नाम पर अपने पाले में रखा जा रहा है ताकि आप इसके नाम पर सवाल ही न करें। दाल की कीमत पर बात न करें या महँगी फीस की चर्चा न करें। इसीलिए मीडिया में राष्ट्रवाद के खेमे बनाए जा रहे हैं। एंकर सरकार से कह रहा है कि वो पत्रकारों पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाये। जिस दिन पत्रकार सरकार की तरफ हो गया, समझ लीजियेगा वो सरकार जनता के ख़िलाफ़ हो गई है। पत्रकार जब पत्रकारों पर निशाना साधने लगे तो वो किसी भी सरकार के लिए स्वर्णिम पल होता है। बुनियादी सवाल उठने बंद हो जाते हैं। जब भविष्य निधि फंड के मामले में चैनलों ने ग़रीब महिला मज़दूरों का साथ नहीं दिया तो वो बंगलुरू की सड़कों पर हज़ारों की संख्या में निकल आईं। कपड़ा मज़दूरों ने सरकार को दुरुस्त कर दिया। इसलिए लोग देख समझ रहे हैं। जे एन यू के मामले में यही लोग राष्ट्रवाद की आड़ लेकर लोगों का ध्यान भटका रहे थे। फ़ेल हो गए। अब कश्मीर के बहाने इसे फिर से लांच किया गया है!

अपने लेख में रबीश आगे लिखते हैं कि, मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा है कि बुरहान वानी को छोड़ दिया जाता अगर सेना को पता होता कि वह बुरहान है। बीजेपी की सहयोगी महबूबा ने बुरहान को आतंकवादी भी नहीं कहा और अगर वो है तो उसके देखते ही मार देने की बात क्यों नहीं करती हैं जैसे राष्ट्रवादी करते हैं। महबूबा मुफ्ती ने तो सेना से एक बड़ी कामयाबी का श्रेय भी ले लिया कि उसने अनजाने में मार दिया। अब तो सेना की शान में भी गुस्ताख़ी हो गई। क्या महबूबा मुफ्ती को गिरफ़्तार कर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जाए? क्या एंकर लोग ये भी मांग करेंगे ? किस हक से पत्रकारों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की बात कर रहे हैं? जिस सरकार के दम पर वो कूद रहे हैं क्या वो सरकार ऐसा करेगी कि महबूबा को बर्खास्त कर दे? क्या उस सरकार का कोई बड़ा नेता महबूबा से यह बयान वापस करवा लेगा?’

बरखा दत्त ने फेसबुक पोस्ट में लिखा कि, ‘टाइम्स नाऊ मीडिया पर अंकुश लगाने, जर्नलिस्ट्स पर केस चलाने और उन्हें सजा देने की बात कहता है? क्या यह शख्स जर्नलिस्ट है? मैं उनकी ही तरह इस इंडस्ट्री का हिस्सा होने पर शर्मिंदा हूं। जो चीज चोट पहुंचा रही है, वो उनका खुल्लमखुल्ला बुजदिली भरा पाखंडपूर्ण रवैया है। वे पाकिस्तानपरस्त कबूतरों की बात तो करते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में गठबंधन को लेकर हुए समझौते का एक शब्द भी जिक्र नहीं करते। इस समझौते के मुताबिक बीजेपी और पीडीपी को पाकिस्तान और हुर्रियत से बात करनी है। मुझे आपत्ति इस बात की है कि चूंकि अरनब गोस्वामी देशभक्ति का आकलन इन विचारों से करते हैं तो वे सरकार पर चुप क्यों हैं? चमचागिरी? सोचिए, एक जर्नलिस्ट सरकार को उपदेश देता है कि मीडिया के कुछ धड़ों को बंद कर देना चाहिए। उन्हें बतौर आईएसआई एजेंट्स और आतंकियों के हमदर्द के तौर पर पेश करता है। उनके खिलाफ मामला चलाने और कार्रवाई करने की बात करता है।’

इस मामले पर हर्षा भोगले ने फेसबुक पर लिखा है, ”एक समय था जब पत्रकार होने का मतलब एक तरह से जज होना होता था, मतलब आप पर एक जिम्मेदारी होती थी। लोग आप पर भरोसा करते थे और आपको उस भरोसे पर हर समय खरा उतरना पड़ता था। सोशल मीडिया आया और ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप्प जैसी चीजों के साथ अब हर कोई पत्रकार बन गया है, बिना कोई जिम्मेदारी लिए। तो गरिमामय और सच्चाई, उत्तेजक और झूठ के बीच में छानने-बीनने की जिम्मेदारी प्रसार करने वाले की नहीं, उसे पाने वाले की ही है। जब खबरें देने वाला खबर बनने की कोशिश करता है और ध्यान खींचने के लिए भड़काऊ व्यवहार करता है, तो हम वा‍कई एक खतरनाक दौर में पहुंच जाते हैं।”

दरअसल समस्या यह है की जो लोग पत्रकारिता को लेकर राष्ट्रवाद का झंडा लिए अपना भविष्य तलाश रहे हैं वे अब अपने निजी स्वार्थ के लिए बेशर्मी से कुछ भी करने पर उतारू हैं. ऐसा नहीं है कि पत्रकारों ने इससे पहले दलों की दलाली से धंधे नहीं किये हैं, जरूर किये हैं. और ज्यादातर ऐसे नाम हम सब को मालूम हैं. वे पत्रकारिता को सीढ़ी बनाकर सत्ता सुख लिए हैं और ले रहे हैं. लेकिन बेशर्म इतने भी नहीं थे कि आज के दलों के दलाल पत्रकार उनसे पीछे रह गए हों.

तक़रीबन सभी (सब नहीं) वे पत्रकार जो सेलिब्रिटी बन चुके हैं उनके एजेंडे में जन सरोकार नहीं होता है, जो कभी कभार आपको अखबारों या टीवी पर सरोकारी पत्रकारिता देखती भी है उसके भी कभी कभार को छोड़ दीजिये तो छिपे हुए एजेंडे होते हैं. ऐसे में अगर आम लोग मीडिया को सत्ता का दलाल कहते हुए गाली देते हैं तो भले ही कुछ लोगों के लिए ये उचित महसूस नहीं होता लेकिन सच तो यही है ? हम इसे स्वीकारें या नकारें, सच यही है की मीडिया का चरित्र उदारीकरण के साथ साथ तेजी से बदला है.

हाँ, इसके साथ ही सच ये भी है की सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. अभी भी बहुत से पत्रकार विपरीत परिस्थितियों में काम कर रहे हैं. आज भी आंचलिक पत्रकारिता सबसे अधिक उपेक्षित होने के बावजूद तुलनात्मक रूप से बेहतरीन काम कर रही है. पत्रकारिता में राजनितिक विचार के आधार पर "पाले" खींचने वालों से सावधान रहने की जरुरत है क्योंकि लोकतंत्र रहेगा तो पत्रकारिता रहेगी, नहीं तो सत्ता का चरित्र ही ऐसा होता है कि वो हर असहमति का गला घोटने पर उतारू हो जाती है, फिर क्या तुम, क्या वे, क्या हम कोई भी नहीं बचेंगे। और हाँ, ये कभी भी नहीं भूलियेगा की जब तक लोकतंत्र ज़िंदा है तब तक सत्ता सनातन किसी एक की नहीं रहती। वो कभी इनकी तो कभी उनकी होगी लेकिन पत्रकारों को "पत्रकारिता" ही करनी चाहिए।

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