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विषमता का बोझा और कब तक ढोएगी रेल

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Oct
06 2017

जयराम शुक्ल

राज्यपाल या मुख्यमंत्री रेल से चलें आज कोई इसकी कल्पना नहीं कर सकता। इस दर्जे के महापुरुषों की यात्राएं भी खबर बनती हैं। पंद्रह साल पहले एक ऐसी ही घटना खबर बनी। हुआ यह कि अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच पटरी नहीं बैठती थी। वजह राज्यपाल केंद्र की सरकार के प्रतिनिधि थे और मुख्यमंत्री प्रतिद्वंद्वी पार्टी के। पर प्रदेश में चलेगी तो मुख्यमंत्री की ही। सो एक बार मुख्यमंत्री ने राज्यपाल महोदय को हवाई जहाज देने से मना कर दिया। राज्यपाल जी रेल से ही हमारे शहर के विश्वविद्यालय के दीक्षांत में पधारे। यह खबर अखबार की सुर्खियों में रही कि बेचारे राज्यपाल रेल से आए। मैं भी उनकी इस सादगी से बहुत प्रभावित हुआ। विरोधी दल ने इसे राज्यपाल के अपमान से जोड़कर मुद्दा बनाया। खैर मैं जब मसले की तफ्सील में गया तो दिलचस्प बात सामने आई। वह ये थी कि राज्यपाल जी सामान्य यात्री की तरह नहीं अपितु एक विशेष सैलून से आए थे। मैंने रेल्वे के अधिकारी से सैलून की अर्थगणित पूछा तो पता चला कि वो विशेष सैलून दिल्ली से चलकर भोपाल पहुंचा,वहाँ चौबीस घंटे खडे़ रहने के बाद राज्यपाल जी को लेकर रीवा पहुंचा। यहां भी एक दिन रुका फिर राज्यपाल जी को लेकर वापस भोपाल गया। सैलून पर इतना खर्च बैठा कि इससे चार्टर्ड प्लेन से दो बार भोपाल से रीवा आ जा सकते हैं।

ये घटना इसलिये याद आई क्योंकि नौजवान रेलमंत्री पियूष गोयल ने रेल्वे से सैलून संस्कृति को अलविदा करने का निर्णय लिया है। रेलमंत्री की मंशा है कि सैलून में चलने के हकदार रेल अफसर स्लीपर या तीसरे दर्जे के एसी से यात्रा करें ताकि रेल यात्रियों की तकलीफों को महसूस करें। निःसंदेह यह फैसला स्तुत्य है। यह बात अलग है कि मंत्री,सांसद,विधायक प्रथमश्रेणी के हकदार तब तक बने रहेंगे जब तक कि प्रधानमंत्री स्तर में कोई फैसला नहीं लिया जाता।

देश में हर साल विभागवार भ्रष्टाचार का लेखा जोखा जारी होता है। इस लेखे में दो साल पहले तक रेलवे अव्वल रहा। बाय-द-वे भगवान् भी कभी वेश बदलकर रेलवे में सफर किए होंगे तो उन्हें बर्थ कनफर्म कराने के लिए टीटी को कुछ न कुछ देना ही पड़ा होगा। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि गांधी के सहयोगी रहे एक सज्जन ने अपने संस्मरण में लिखा था कि बापू की बर्थ जुगाड़ने के लिए किस तरह रिश्वत देकर टीटी को पटाना पड़ा था। यद्यपि बापू को इस घूसखोरी का पता नहीं चल पाया था। गांधी की जीवनदृष्टि रेल ने ही बदली थी। पूरा भारत रेल से ही घूमकर जाना समझा। दफ्रीका के डरबन में यदि अँग्रेज़ों ने पहले दर्जे से बैरिस्टर मोहनदास करमचन्द का डेरा डकूला न फेंका होता तो वे कभी गांधी नहीं बनते। विषमता के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा उन्हें रेल से मिली। जिंदगी भर वे रेल के सामान्य दर्जे में सफर करते रहे इसलिए थर्ड क्लास को गांधी क्लास कहा जाने लगा।

आजादी के बाद रेल्वे में पहला सबसे बड़ा काम हुआ वो ये था कि थर्ड क्लास यानी तृतीय श्रेणी शब्द विलोपित कर दिया गया। विडम्बना देखिए डिब्बा वही सिर्फ़ श्रेणी पोत दी गई। गांधी ने जिस समतामूलक समाज की कल्पना रेल के जरिए की थी वह धरी रह गयी। भारतीय रेल आज देश की भीषण विषमता का जीवंत रोलमॉडल है। रेलों की श्रेणियां, रेल के भीतर की श्रेणियां। जितना वर्ग विभाजन रेल में है शायद और कहीं नहीं। पैसेंजर,शटल से लेकर मेल,एक्सप्रेस, सुपरफास्ट दूरंतों, शताब्दी, राजधानी और अब बुल्लेट। एक लंबी रेलगाड़ी विषमता से भरे पूरे भारतीय समाज को ढोने के लिए अभिशप्त है। गांधी की कल्पना थी कि देश श्रेणी विहीन होगा। हुआ उल्टा, वीआईपी, वीवीआईपी, सुपरवीआईपी फिर मोस्टसुपरवीवीआईपी। ऊपर भी वर्ग भेद, नीचे की तो खैर बात ही न पूछिए। रेल में इस पीड़ाजनक गैरबराबरी के जरिये गांधी के सपने का सबसे ज्यादा मजाक उड़ा।

अँग्रजों के सबसे ज्यादा प्रतीक और लाटसाहबियत रेल ही अबतक ढो रही है। किसी ने पहल नहीं की। हां मुझे याद आता है कि 77 के जनता शासनकाल में रेलमंत्री प्रो.मधुदंडवते ने सामान्य श्रेणी में पटरे की जगह जूट वाली गद्दियों का निर्णय लिया। इसके बाद एक से एक चोचलिस्ट रेलमंत्री बने किसी ने रेल में समाजवाद की बात नहीं की,जार्ज फर्नांडिस ने भी नहीं। लालू,पासवान जैसे कुबेर चोचलिस्टों की बात ही क्या करना।

बहरहाल पियूष गोयल का यह फैसला और भी जमीन में उतर सकता है यदि वे स्वयं भी गांधी की तरह सामान्य दर्जे में यात्रा करने का निर्णय ले लें। और हां टिकट कनफर्म कराने के लिए चिटठी न लगवाएं या बताएं ही नहीं कि वे रेलमंत्री हैं। फिर देखें कि टिकट कैसे कनफर्म होती है,भले ही महीने भर पहले टिकट खरीदी हो। रेलवे का यह रहस्य आजतक समझ में नहीं आया कि दो घंंटे पहले टिकट लो और चिट्ठी लगवा दो तो कनफर्म। दो माह पहले लो और चिट्ठी न लगे तो आरएसी के आगे मामला बढता ही नहीं।

यदि वीआईपी कल्चर पर प्रहार करना ही है तो पहले टिकट का कोटा सिस्टम खत्म करिये। नेता, हाकिम, अफसर सभी को जाने दीजिए सामान्य मुसाफिरों की तरह। उनके भी पसीने बहें, तरह-तरह की देसीगंध वे भी लें। यूरोप को हर क्षेत्र में रोलमॉडल बनाते हैं तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट के मामले में भी बनाएं। ब्रिटेन के पिछले प्रधानमंत्री तो मेट्रो से चलते थे ऐसा अखबारों में पढा़ था। अरे दूर न जाएं, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को ही अमल में ला लें जो निजी कामों के लिए रिक्शे पर चलते हैं। इनसे न बने तो अपने मनोहर पर्रिकर से सीख लें, जिन्हें सिटी बस में चलने से कोई गुरेज नहीं।

उपसंहार एक  सत्यकथा के साथ। भाजपा आज कुशाभाऊ ठाकरे जैसे तपश्वियों, मनश्वियों की पुण्याई खा रही है। उनकी सादगी के बहुत से किस्से हैं। बात 1989 की है। रीवा में भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक थी। ठाकरे जी को इलाहाबाद के रास्ते दिल्ली से रीवा आना था। मैंने तत्कालीन जिला भाजपाध्यक्ष से आग्रह किया कि इलाहाबाद से ठाकरे जी को रिसीव करने मैं चला जाऊं। लोभ यह था कि अखबार के लिए साक्षात्कार का काफी समय मिल जाएगा। वे राजी हो गए, मैं एक पदाधिकारी के साथ इलाहाबाद रवाना हुआ। जीप नैनी पुल के जाम में फँस गई। उधर प्रयागराज एक्सप्रेस आकर यार्ड में चली गई। अब ठाकरे जी को कहां ढ़ूढे। अंदाज लगाया कि वे जीरो रोड डिपो में बस तलाश रहे होंगे। हम लोग बस अड्डे पहुंचे तो वे राज्यपरिवहन की खटारा बस में पीछे की सीट पर बैठे थे, क्योंकि वहीं एक बची थी। हम लोग पहुंचे और स्थिति बताते हुए आग्रह किया, तो यह कहते हुए कि चलिए कोई बात नहीं.. निष्पृह भाव से जीप में बैठ गए। यहां समूचे प्रदेश का भाजपा नेत्तृत्व उनके लिए पलक पावडे़ बिछाए बैठा था। ठाकरे जी तब भी राष्ट्रीय नेता थे। क्या आज ये संभव नहीं है। यदि है तो दिल मजबूत करके लीजिए निर्णय और स्वयं लग जाइए जनसामान्य की भाँति टिकट की लाईन में। व्यवस्था ऐसे सुधरेगी,, समझ में आया।

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जयराम शुक्ल

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं.
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