जयराम शुक्ल
लगता है भगवान ने किसान और बैल की किस्मत एक साथ गढी है। दोनों परस्पर पूरक हैं इसलिए जब बैल का नाम लो तो किसान की आकृति उभरती है। दोनों के भाग्य में डंडा है। चौराहे पर बैल मिल जाए तो उस पर डंडे की बारिश, राजपथ में मिले तो ट्रक कुचल दे। व्यवस्था के नाम पर काँजीहौस है। वह भी न मिले तो गरदन पर कसाई का बका। फिर बडे़ साहबों की थाल की बीफ बिरियानी। बैल की अब यही नियति है क्योंकि ग्रोथरेट में अब उसकी भूमिका नहीं बची। और किसान...? सडक पर हक माँगने निकले तो डंडा। ज्यादा चूँ चपड़ की तो गोली। इससे भी बचा तो हवालात, जेल। फिर भी मरने से बच गया तो सल्फास की गोली या फिर बैलों को बाँधने वाली रस्सी से फाँसी का फंदा।
यह हम नहीं बोल रहे रिपोर्टस कहती हैं। बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि पिछले दस वर्षों में कोई दो लाख किसानों ने आत्महत्याएं की। हर एक मिनट में देश के किसी न किसी कोने में एक किसान जान दे देता है। और बैल..? ये बेचारे खेती से बेदखल होकर सड़कों में आ गए। इनका कोई घनीघोरी नहीं। शिवजी का वाहन होना भी काम नहीं आया। गाय तो चलो दूध दे देती है, ये सिर्फ गोबर करते हैं। जिसके दरवाजे पर किया वहीं मिला दो डंडा। ये नंदीबाबा धरती के बोझ हैं जिन्हें देसी-विदेशी स्लाटरहाउस यानी कसाईवाडे कम कर रहे हैं। आज की तो नहीं कहता पर दो साल पहले का आँकड़ा यह था कि दुनियाभर में बीफ के निर्यात में अपना महान भारत देश नंबर एक। गोमाता और नंदीबाबा दोनों स्लाटरहाउस में पहुंच कर बीफ में बदलकर डिब्बा पैक सात समंदर पार पहुंच जाते हैं।
फेसबुक पर पूना के किसी कलाकार का एक कार्टून चित्र देखने को मिला। ऐसा पीड़ादायक चित्र कि आँसू आ जाए। पेड़ पर लटके किसान का पाँव चूमते हुए हल में नधे दोनों बैल कहते हैं-मालिक हमें छोड़ के मत जाओ हम हाड़तोड़ मेहनत करके सारा कर्जा पटवा देंगे। यह चित्र आँखें डबडबा देता है। प्रेमचन्द के दो बैलों की कथा स्मृति में उभर आती है। ऐसा लगता है कि प्रेमचंद का झूरी काछी ही पेंड़ में लटका है और उसके हीरा मोती रो रोकर मनुहार कर रहे हैं। यह चित्र प्रेमचंद की कथा का विस्तार है लेकिन दुखांत के साथ।
सन् अडसठ का अकाल देखने वाले लोग अभी जिंदा हैं। उसके बाद भी सूखा, अकाल, बाढ, बूडा जैसी विपत्तियां आती रहीं, तब देश की ग्रोथरेट भी ऐसी नहीं थी। न खेती की ऐसी उन्नत तकनीक। पर किसानों ने कभी आत्महत्या के बारे में सोचा भी नहीं। एक टाइम खाकर,पानी पीकर जिंदा रहा। गाय बैलों की रंभाहट जीवन का राग भरती रहीं। किसान कभी धरती में सबसे मजबूत छाती का प्राणी था। सबकुछ ऊपरवाले पर छोड़कर फिर भिड़ जाता था जिंदगी के जंग में। अब तो सब है। डंकल, जीएम,बीटी बीज।ट्रैक्टर, हारवेस्टर, स्प्रिंकलर, ग्रीन हाउस,पालीहाउस।ट्यूबवेल, नहर का पानी, सरकार का समर्थन मूल्य, किसान क्रैडिट, सबसिडी सभी कुछ। फिर क्यों मर रहा किसान। हिम्मत जवाब दे गई। जिंदगी का रस चला गया.. आखिर क्यों.. क्यों..क्यों?
पिछले दो दशक में किसानों की परिभाषा बदल गई। पिछले के पिछले साल जब खेती की नुकसानी का मुआवजा बँटा और सूचियाँ सामने आईं तो चकित रह गया। पहली बार पता चला कि प्रदेश के बड़े किसान तो बल्लभभवन,सतपुडा, विन्ध्यांचल में बैठते हैं। उनसे भी बड़े किसान चार इमली-चौहत्तर बंगले अरेरा और श्यामला में बसते हैं। और इन सबसे बड़े तो मुंबई, बेंगलुरु में जिनके पास कारखाने, सेज आदि के नामपर जोत की हजारों,लाखों एकड़ जमीन है। आरबीसी के अनुसार ये भी किसान हैं। मुआवजे, सबसिडी के हकदार। तो सड़क पर कौन किसान हैं? डंडे, गोली,जेलवाले..? ये वो किसान हैं जिनकी जिंदगी खेती है। ये इलाकेदार नहीं छोटी और मझोली जोत के काश्तकार,पाँच से दस एकड़ वाले। यही विपदा के मारे हैं और व्यवस्था की चक्की के दो पाटों में फँसे हुए। मजदूरों के लिए तो मनरेगा है एक रुपये का राशन है...तमाम सबकुछ रियायतें है। ये सीमांत किसानों का स्वाभिमान है जो न मनरेगा में जाने देता और मंडी भी इसके लिए शिखंडी है।
उदारीकरण के बाद नई खेती ने इन सीमांत किसानों को ऐसे जकड़ लिया है जैसे आक्टोपस छोटे समुद्री जीवों को पकड़ लेता है। खेती गुलाम हो गई। पारंपारिक बीजों को छीनकर उत्पादन के नामपर डंकल,बीटी,जीएम थमा दिए। विदेशी आबोहवा वाले ये बीज ज्यादा परवरिश मांगते हैं। ज्यादा पानी,ज्यादा खाद। इन बीजों को बनाने वाली कंपनियां खरपतवार के जिंस बोनस में फोकट दे देती है। उत्पादन ज्यादा तो हुआ पर मुनाफा खरपतवार नाशक दवाइयां खा गई। बीज की आत्मनिर्भरता को छीन लिया। खेतों की नैसर्गिक उर्वरता को नष्ट कर दिया। फसल कंपनियों के पराश्रित हो गई। ज्यादा उत्पादन उसी दर से ज्यादा लागत, किसानों को हासिल आया शून्य। उसी शून्य के चक्कर में जिंदगियां जा रही हैं। सीमांत किसान पहले हल बैल से काम भर की खेती कर लेता था। त्वरित उत्पादन की होड़ और खेती के नए चलन ने बैलों को खेत से बाहर कर दिया। कभी यही बैल जोतते भी थे और गोबर मूत्र से खेत को उपजाऊ भी बनाते चलते थे। हमारे नीति नियंताओं ने गोवंश की बखत नहीं समझी। सब पश्चिम की रौ में बह गए। ट्रैक्टर के विकल्प में यदि बैलों से खींचे जाने वाले सेमी आटोमेटिक कल्टीवेटर या कृषियंत्र बनाए होते तो खेती भी बची रहती,किसान भी और उसका हमसफर बैल भी।
मैं ये होशोहवाश के साथ लिख रहा हूँ कि खेती के मामले में 90 के बाद की हर सरकारों ने आपराधिक फैसले लिए और खेती को गुलामी की ओर धकेला। दृढ इच्छाशक्ति हो त़ो बैक गेयर लगाया जा सकता है। भारतीय परंपरगत खेती को उन्नत करके जिसमें बैलों की भी भूमिका रहे और देसी बीजों की भी। दीनदयालजी भारतीय परंपरा को युगानुकूल और वैश्विक विषयों को देशानुकूल बनाने की बात करते थे। उनकी जन्मशती में खेती किसान और गोवंश की बात सबसे ऊपर एजेंडे में होनी चाहिए।
और आखिर में किसान के हक में क्यों.. हों? खेती के मामलों में अध्ययन और शोध करने वाले देविंदर शर्मा का ये निष्कर्ष पढिए। वे बताते हैं कि 1970 में गेहूं 76 रूपये क्विंटल था 2015 इसकी कीमत 1450 रू. यानी कि 19 गुना बढी़। जबकि इस दौरान सरकारी कर्मचारियों का मूल वेतन डीए 120.गुना बढा। अधिकारी स्तर पर यह बढोत्तरी 150-170 गुना और कारपोरेट सेक्टर की ये बढोतरी 300-1000 गुना हुई। इस अनुपात में किसान की तुलना करें तो गेहूं का दाम कम से कम 7600रू. क्विंटल होना चाहिए। पेट्रोल कंपनियां तेल का दाम तय कर लेती हैं, शराब कंपनियां भी अपनी कीमत तय करती हैं तो किसानों ने क्या पाप किया है कि उन्हें अपने उपज की कीमत तय करने से वंचित रखा गया है। खेती की लागत के हिसाब से जब तक मुनाफे का प्रतिशत तंत्र नहीं होगा, किसान सड़क पर उतरेंगे ही, लाठी, डंडा, गोली,जेल की परवाह किए बगैर।