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शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी भीषण गैरबराबरी शायद ही दुनिया के किसी मुल्क में हो

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Oct
03 2017

जयराम शुक्ल

ये ससुरे मैकाले ने हमारी शिक्षा व्यवस्था का बेडा गर्क कर दिया वरना अपन कबके विश्वगुरु हो गए होते.. आज जब से भारत में प्राथमिक शिक्षा के स्तर के बारे में रिपोर्ट पढ़ी तब से कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया सुनने के इंतजार में हूँ। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत के आईआईटी, आईआईएम, एम्स की उपलब्धियों के भाषण की गूंज मंद पड़ नहीं पाई कि वर्ल्ड बैंक की एक अध्ययन रिपोर्ट ने बता दिया कि हमारी शिक्षा व्यवस्था कितने पानी में है। रिपोर्ट बताती है कि शिक्षा के क्षेत्र में विश्व के पिछड़े 12 देशों में अपना नंबर ग्यारहवां है जहां दूसरी कक्षा के छात्र न गिनती जानते हैं और न अक्षर पहचानते हैं।

वैसे ये रिपोर्ट न भी आती तो ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा का ये हाल वो भी जानते हैं जिन्होंने -स्कूल चलें हम.-.का नारा दिया अब कथा कहानी उत्सव मनवा रहे हैं, बाल संसद लगवा रहे हैं। दोपहर के भोजन की लालच न हो तो बच्चे पढने भी न आएं। जहाँ बच्चे पढने आते हैं वहाँ अध्यापकों को पढाने की फुर्सत नहीं। अभी अभी वो लैट्रिन का गड्ढा खोद के लौटे हैं। अब सुबेरे शाम ताकेंगे कि कोई खुले में तो झाड़े फराक तो नहीं जा रहा है। इससे मुक्त होंगे तो पेंड़ गणना,पशु गणना में लग जाएंगे। तब तक कोई चुनाव आ ही जाएगा तो फिर काम ही काम। अब तो गांव के शिक्षकों को ये भी याद नहीं रहता कि पिछली बार कब पढ़ाए थे।

सोशल मीडिया भी बड़ा कौतुकी है। एक पोस्ट में यह मजाक पढने को मिला कि सरकार अब शिक्षकों की ड्यूटी हनीप्रीत को ढूंढने में लगाने पर विचार कर रही है। सरकार के इस विचार पर शिक्षकों में मतभेद उभर आया है। गुरूजी, संविदाकर्मी, अतिथि अध्यापकों की मांग है कि हनीप्रीत को ढूंढने का दायित्व उन्हें मिलना चाहिए। वे वजह बताते हैं कि परमानेन्ट शिक्षक जिंदगी के ढलान पर हैं। ये काम नौजवानों का है। शिक्षकों को लेकर ये.हल्के फुल्के मजाक अब संता-बंता को भी पीछे छोड़ रहे हैं। भारत में शिक्षा व्यवस्था अब सचमुच मजाक का विषय है। तीन चार दशक पहले श्रीलाल शुक्ल रागदरबारी में लिख गए थे की भारत की शिक्षा नीति चौराहे पर खड़ी ऐसी लाचार कुतिया है कि गुजरने वाला हर राहगीर लतिया कर चला जाता है और वह बपुरी कें बोलकर रह जाती है। अभी भी वह चौराहे की कुतिया ही है।

मैंने जब से होश संभाला तब से जब भी शिक्षा व्यवस्था की बात चलती है तो हर कोई मैकाले को इसका दोषी बता देता है। भारत का शिक्षा स्तर क्यों इतना घटिया.. जवाब.. ये मैकाले की करतूत है। स्कूलों में शिक्षक क्यों नहीं.. मैकाले जाने। जो हैंं वे पढ़ाते क्यों नहीं.. उन्हें मैकाले का प्रेत पढाने नहीं देता। स्कूल भवन का पैसा कौन खा गया...मैकाले से पूछिये। हमारे देश के शैक्षणिक संस्थान दुनिया के टाप टू हन्ड्रेड में क्यों नहीं... यह साजिश मैकाले कर गया था। आज भी हम पाठ्यपुस्तकों में बेमतलब का कूड़ा कचरा क्यों ढो रहे हैं...मैकाले की वजह से। मैकाले, मैकाले, मैकाले। शिक्षा का नाम लो मैकाले का जिन्न हाजिर। सत्तर साल से यही चल रहा है। यहां शिक्षा संगोष्ठियों में जितना जार्ज पंचम और चर्चिल का जिक्र नहीं होता जिन्होंने हमें गुलाम बनाया और राज किया, उससे ज्यादा मैकाले का होता है। मैकाले जिंदा होते तो वे जरूर इंडिया आते, जार्ज पंचम की छतरी के नीचे कान पकड़कर उठक बैठक लगाते कि अब तो आजाद हो भाई लोगों। मेरी भूमिका तो सन् सैतालिस से ही खतम हो गई।

शिक्षा के नीतिनियंता अब भी मैकाले की प्रेतबाधा से मुक्त नहीं हुए। हमारे देश में ये चलन पुराना है। जब कोई बात खुद के बस में न हो तो दूसरे पर थोप के मुक्ति पा लो। आजादी के बाद से चलता चला आ रहा है ये सब। पहले गड़बड़ घोटाले होते थे तो एक लाईन की सफाई में सब साफ..इसके पीछे सीआईए का हाथ है। ये तबतक चला जब तक हम अमेरिका के शरणागत नहीं हुए। फिर कहीं दंगा फसाद हो जाए तो इसके पीछे आरएसएस का हाथ है, ये कहा और मुक्ति पा ली। अब कोई बात आती है तो इसके लिए सत्तर साल का कांग्रेस शासन दोषी है। देश में आज जो कुछ गड़बड़ है उसके लिए सत्तर साल वाले दोषी हैं।

कई राज्यों में पंद्रह साल से कांग्रेस नहीं है लेकिन कोई बात करो तो कांग्रेस शासन की वजह से ऐसा हुआ। अरे कोई जवाबदेही त़ो बनती है। मध्यप्रदेश का कोई भी ऐसा शैक्षणिक संस्थान नहीं जो देश के टाप हंन्ड्रेड में हो। हमारे शहर में एक विश्वविद्यालय है उसके जितने विभाग हैं उतने भी अध्यापक नहीं। दिहाड़ी के अतिथि विद्वान यूनिवर्सिटी चला रहे हैं। जो परमानेंट हैं उन्हें पढाने की फुर्सत नहीं क्योंकि वे पैसा कमाऊ विभाग चलाने के प्रभारी हैं। 10 से 12 हजार पाने वाले अतिथि विद्वान पढाते हैं। डेढ लाख पाने वाले अपनी कमाई में कुछ और शून्य जोडने में जुटे हैं। कमोबेश सभी विश्वविद्यालयों की यही हालत है। इन्हें विश्विद्यालय कहने में भी शरम आती है। कालेजों की स्थिति और गई गुजरी। चुनाव आया फिर नए कालेजों की घोषणा कर दी। न पढाने वाले, न इमारत। फिर दिहाड़ी में लगा दिया कि जाओ पढाओ। चाहे उच्च शिक्षा हो या निच्च शिक्षा सभी का यही हाल है। ऐसा भीषण मजाक बनाके रख दिया..? क्यों इसलिए कि आपके बच्चों के लिये विदेशी स्कूल हैं। आपके पास धन है,रसूख है। फिर गरीब का बच्चा पढ लेगा तो वह भी कलेक्टर बन सकता है। आपने तय कर रखा है कि वो चपरासी बने। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी भीषण गैरबराबरी शायद ही दुनिया के किसी मुल्क में हो। इन मुश्किलों के बावजूद जब बच्चे आगे  निकलते हैं  तो सचमुच यकीन हो जाता है कि अपने देश को भगवान् ही चला रहा है।  बहरी व्यवस्था के सामने कौन चिल्लाए और क्यूँ चिल्लाए। आज तक मैंनें ये नहीं सुना कि कहीं छात्र आंदोलन इस सवाल पर भी चल रहे हैं कि उन्हें अच्छे शिक्षक दो, नियमित क्लास चलाओ, शिक्षा के नाम पर मैकाले के नाम से अब उल्लू मत बनाओ।

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जयराम शुक्ल

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं.
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