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.... नहीं तो व्यवस्था की जरखेज जमीन पर बीमार फसलें ही आएंगी

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Oct
03 2017

जयराम शुक्ल

भोपाल से लौटते समय रेल में एक मित्र से भेंट हो गई। वे आरटीओ महकमे से थे। साथ में लाल रंग के लेदर के एक जैसे ही पाँच सूटकेस लिए । उनके साथ एक मिस्त्रीनुमा आदमी भी था,जो सूटकेस सँभाले था। मैंने मित्र से पूछा- बड़ी खरीदारी कर ली बड़े खूबसूरत हैं ये। मित्र फुलमूड में थे  बोले-घंटा खरीदारी की..सूटकेस पहुँचओ, फिर उसे खुलवाओ,गिनवाओ। ये जो मिस्त्री है न यह इनका डिजिटल ताला तोडने गया था..उन्हें तो नंबर तक याद रखने की फु्र्सत नहीं,नोट गिनने की कौन कहे। मैंनें उनसे पूछा- भैय्ये मामला क्या है? वे सुरूर में थे, बताना शरू किया-क्या बतावें सरकार बदल गई दस्तूर नहीं बदला.। हर महीने अभी भी बदस्तूर सूटकेस जाते हैं..। ये पिछले पाँच महीने के हैं। हर बार लाक का कोड नंबर भी दे आते थे। ये पांच महीने से खुले ही नहीं। मुझे तलब किया गया तो मैं मिस्त्री लेकर गया था लौट रहा हूँ। फिर उन्होंने चेकपोस्ट कलेक्शन,उसका हिस्साबाट और चेकपोस्ट पोस्टिंग के नीलामी की रकम बताई। उन्होंनें यह भी बताया कि उनके जमाने की पीएससी में इंटरव्यू के पहले पदों की कैसे नीलामी होती थी..वे भी उसी नीलामी प्रक्रिया से चयनित सरकारी जोधा थे,जो परिवहन विभाग का कल्याण कर रहे थे। मित्रों यह कोई आठ दस बरस पहले की सत्य घटना है और कथन में अतिरेक इसलिए नहीं कि वे फुलमूड में पूर्ण ईमानदारी के साथ बता रहे थे। उन्होंने जब तक नौकरी की इसी दबंग ईमानदारी के साथ की। और जो भी आरटीओ महकमे को थोड़ा बहुत जानता है उसे ये वाकया असहज भी नहीं लगेगा। यह कहानी इसलिए याद आई क्योंकि एमपी पीएससी की मुख्यपरीक्षा के परिणाम को लेकर सवाल खड़े हुए हैं कि क्या प्रशासनिक पदों के नीलामी की प्रक्रिया वैसे ही बदस्तूर है, जैसे कि सूटकेस, जैसे कि चेकपोस्ट की पोस्टिंग, कि जैसे कि मेरे उस साफगो मुँहफट मित्र का आरटीओ में चयन..?

राज्य प्रशासनिक सेवाओं में चयन की धांधलियों के दो दृष्टांन्त देख चुके हैंं। एक लालूकालीन बिहार का, दूसरा मुलायम अखिलेशकालीन यूपी का। मैरिट लिस्ट में जब एक ही जाति के अधिसंख्य अभ्यर्थी आए तो देशभर में बवाल मचा। तीसरा दृष्टांन्त हाल ही का मध्यप्रदेश का है। राज्य प्रशासनिक सेवा की मुख्य परीक्षा में एक क्रम से ही एक ही उपजाति के अभ्यर्थियों के सफल होने की सूची सामने आई। ये सभी एक ही केन्द्र में परीक्षा में बैठे थे। इस प्रकरण में सत्ता के शीर्ष के लोगों के जुड़े होने के बजाए परीक्षा व्यवस्था के शीर्ष लोगों के एक खास सिंडीकेट का नाम आया।

एक अभ्यर्थी द्वारा खोजकर जारी किए गए दस्तावेजों के अनुसार आगर मालवा नामक परीक्षा केंद्र में बैठे अभ्यर्थियों में सफल उम्मीदवारों में एक क्रम से 22 अभ्यर्थियों का उपनाम जैन है। इस केंद्र की प्रभारी, इंदौर स्थिति आयोग के परीक्षा नियंत्रक, प्रभारी परीक्षा नियंत्रक भी जैन ही बताए गए हैं। इसे संयोग से ज्यादा दुर्योग मानने वाले ज्यादा हैं व इस प्रकरण को "जैन पीएससी घोटाला" का नाम मिल गया है। फौरी तौर पर ही पूरा प्रकरण स्याह दिखता है। पहला- जैसा कि बताया गया कई संभागीय मुख्यालयों वाले शहरों को दरकिनार करते हुए एक कस्बेनुमा जिलामुख्यालय आगर मालवा को परीक्षा केंद्र बनाना। दूसरा- इस प्रकरण में आए ज्यादातर अभ्यर्थियों का परीक्षा केंद्र के तौरपर नजदीकी केन्द्र जबलपुर, भोपाल की बजाए 350 किमी दूर आगर मालवा को चुनना। तीसरा उन अभ्यर्थियों को आसानी से ये केन्द्र आवंटित हो जाना। और सबसे महत्वपूर्ण ये कि एक ही क्रम से 22 अभ्यर्थियों का नाम सूची में आ जाना किसी भी तटस्थ व्यक्ति को यह मामला एक नजर में ही संदिग्ध दिखेगा।

अभी महज संदेह है। भीतर घुसने पर आरोप बनेगा, और इसके बाद अपराध। संदेह को अपराध तक पहुंचाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, व्यापमं का मामला लड़ने वाले जानते हैं। और लड़ना भी किससे..? उन्ही से जिनपर यह काला पीला करने का संदेह है। सबूत,अधिकार उन्हीं के पास हैं,और यदि कोई अभ्यर्थी लड़ता है तो उसका भविष्य भी। उसके पास सिर्फ रोना है। ज्यादा से ज्यादा वह रोकर अपने साथ हुई नाइंसाफी की व्यथा सुना सकता है। इस मुद्दे को यदि विपक्ष उठाए तो सत्ता के लिए बचाव करना उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। एक्टविस्ट उठाएं तो वे सीधे सीधे राष्ट्रद्रोही हैं। और मीडिया..?

कई अभ्यर्थियों ने मुझसे फोनकरके हताशा के साथ जानना चाहा, सर मीडिया ने इसे ब्रेकिंग क्यों नहीं बनाया ? मैं चूंकि फिलहाल किसी अखबार में नहीं हूं इसलिए सिर्फ अनुभवों के आधार पर अनुमान लगा सकता हूँ। जिस मीडिया में कुपोषित बच्चों के मौत के मसले की स्टोरी एन वक्त पर निकालकर बोर्नविटा का विग्यापन चिपका दिया जाता हो उस मीडिया की प्राथमिकताओं का अंदाज लगा सकते हैं। अभी दशहरा का धंधा चल रहा है। विग्यापनों की बौछार है ऐसे में भला कोई अपना स्पेस क्यों किल करेगा। दूसरे, व्यवस्था के खिलाफ हो हल्ला मचाने का कोई अर्थ तो निकलता नहीं,क्यों फोकट की मगजमारी करें। तीसरे चूंकि बड़े मीडिया के लिए फर्स्ट हैंड खबर है नहीं इसलिए छुटभैय्यों को क्यों फालो करें। चौथे कुछ भी हो सकता है..यह मैनेजमेंट युग है। व्यापमं भी बड़ीखबर तब बना जब दिल्ली की मीडिया ने संग्यान लिया और फिर मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब कहीं प्रदेश के मीडिया की आँखें खुलीं।

बहरहाल मैं तो उन तमाम अभ्यर्थियों की तरह सरकार से यह उम्मीद करता हूँ कि यदि संदेह उठा है तो समय रहते उसका शमन होना चाहिए। कोई भी व्यवस्था साफसुथरी होनी तो चाहिए ही दिखनी भी चाहिए। उत्तरदायी लोकप्रशासन वह है जो आखिरी व्यक्ति के प्रति भी जवाबदेह हो और उसकी शंकाओं का समाधान करे। अभी मर्ज का लक्षण दिखा है। नजरअंदाज किया तो व्यापमं की तरह नासूर बन जाएगा। साख की वापसी बार बार नहीं होती, उसका आखिरीबार भी आता है। फिर कोई चारा नहीं बचता। राज्यप्रशासनिक सेवा साधारण नहीं है। इसी से चयनित डिप्टी कलेक्टर व डीएसपी एसीएस और एडीजी तक पहुँचते हैं। गलत और भ्रष्ट तरीके से चयनित लोग ही भ्रषटाचार की अटूट शृंखला बनाते हैं। कुछ लाख रुपए देकर कई करोड़ का खेल खेलते हैं। पीएससी कभी इसके लिए बदनाम रह चुका है कि यहां एक एक अंक की बोली लगने के किस्से आम हैं। प्रदेश में हजारों ऐसे छले गए नौजवान हैं जो बूढे हो चले हैं। इसके पहले की सरकारोँ में उनके साथ छल हुए। उसी छल के प्रताप से पिछली सरकार स्वाहा हुई। छले और अन्याय के शिकार लोगों की हाय बहुत लगती है। कबिरा हाय गरीब की कबहुँ न निष्फल जाय। मरे जीव की खाल से लोह भसम होइ जाय।। संभावनाओं के पाँव पर कुल्हाड़ी मत चलाइए, नहीं तो व्यवस्था की जरखेज जमीन पर बीमार फसलें ही आएंगी।

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जयराम शुक्ल

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं.
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