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भारत में आत्महत्या का 'संकट काल'...

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Oct
03 2017

सचिन कुमार जैन

क्या खुद को खत्म कर लेना बहुत आसान काम होता है? जिंदगी में कई कोने होते हैं, जहां हम अपने लिए जगह खोजते हैं. उम्मीदें हर यात्रा की शुरुआत होती हैं, बिना उम्मीद के अपना कोना नहीं खोजा जा सकता. क्या कोई भी ऐसा होगा, जो अपना काम इस सोच के साथ शुरू करता हो कि उसे कभी अपना मुकाम हासिल ही न होगा! किसान कभी यह सोच कर बीज नहीं बोता है कि उसकी फसल बर्बाद हो जाएगी! विद्यार्थी सोचता तो यही है वह उत्तीर्ण हो जाएगा! बीमार व्यक्ति को उम्मीद होती है कि उसका इलाज़ हो जाएगा! बेरोजगार व्यक्ति की आंखों में उम्मीद होती है कि उसे काम मिलेगा और वह अपने प्रियजनों को अच्छा जीवन दे पाएगा! उम्मीद ही तो आधार है; पर हमारी सरकार अब केवल 'आधार कार्ड' के भरोसे बैठ गई है. जीवन की हर बुनियादी जरूरत को पूरा करने के लिए अब लोगों के पास 'आधार' होना चाहिए. उम्मीद को 'आधार कार्ड' से लड़ा दिया गया है. व्यवस्था 'आधार कार्ड' के पक्ष में है. उम्मीद अब अकेली रह गई है.

हम एक ऐसे समाज में पैदा हुए हैं, जो अपने अतीत पर लगभग श्रृद्धा रखता है. अपनी सभ्यता, आध्यात्म और अस्मिता पर जिसे गर्व से कम कुछ महसूस नहीं होता. बहरहाल जाति, लैंगिक भेद और असामनता की बेड़ियों की आवाज़ में भी इसे संगीत ही सुनाई देता है. वर्तमान सन्दर्भ में देखें, तो आप पाएंगे कि हमारे समाज का बड़ा तबका हर पल सकारात्मकता से स्नान करता है. वह तेज़ी से बढ़ रहे संकट से छिपकर आगे बढ़ना चाहता है. यहां आत्मविश्लेषण पर आत्मश्लाघा पूरी तरह से हावी है. वास्तव में यह वक्त है खेती, शिक्षा, स्वास्थ्य और युवाओं के जीवन को सम्मान देने वाली नीतियों और राज्य व्यवस्था के निर्माण का. जानते हैं इन चार क्षेत्रों के संकट का स्तर क्या है; जरा देखिये 15 सालों (वर्ष 2001 से 2015) में कितने लोगों ने ख़ुदकुशी की...

भारत में कुल आत्महत्याएं-                              18,41,062
कृषि क्षेत्र में आत्महत्याएं-                                  2,34,657
बीमारियों से पीड़ित आत्महत्याएं-                        3,84,768
अनुत्तीर्ण होने पर आत्महत्याओं की संख्या-                34,525
विद्यार्थियों की आत्महत्याएं-                                  99,591
गरीबी और बेरोज़गारी के कारण आत्महत्याएं-            72,333

भारत में गरीबी बहुत सीधे मार करती है. अपने देश में वर्ष 2001 से 2015 के बीच गरीबी और बेरोज़गारी के कारण 72,333 लोगों ने आत्महत्या कर ली. भोपाल में फ़रवरी 2017 में एक घटना घटी. नामी स्कूल, नामी कॉलेज और नामी प्रबंधन संस्थान से एमबीए कर चुके गौरव इन्दानी ने कलियासोत बांध में कूदकर आत्महत्या कर ली. उसे अच्छी नौकरी की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हुई. इससे वह अवसाद में था.

गरीबी का सबसे गहरा जुड़ाव बेरोज़गारी और आजीविका के संकट से हैं. राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के प्रतिवेदनों के मुताबिक, भारत में वर्ष 2001 से 2015 के बीच 72,333 लोगों ने गरीबी और बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या की. जनगणना 2011 के मुताबिक, भारत में काम खोज रहे लोगों (जिनके पास कोई काम नहीं था) की संख्या 6.07 करोड़ थी, जबकि 5.56 करोड़ लोगों के पास सुनिश्चित काम नहीं था. इस हिसाब से 11.61 करोड़ लोग सुरक्षित और स्थायी रोज़गार की तलाश में थे. अनुमान बता रहे हैं कि यह संख्या वर्ष 2021 में बढ़कर 13.89 करोड़ हो जाएगी.

हर साल 60 लाख युवा स्नातक शिक्षा पूरी करते हैं, उन्हें भी रोज़गार चाहिए. उनके कौशल विकास के लिए 3,500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. यह तय है कि भारत सरकार देश के युवाओं को कमज़ोर मानती है, क्योंकि उनके पास बाज़ार के अनुरूप कौशल नहीं है, वह यह नहीं जानना चाहती है कि जो कौशल हमारे समाज और युवाओं में है, उसके मुताबिक भी अवसर खड़े किए जाएं. मसलन प्राकृतिक संसाधनों का पूरा हक समुदाय को देना, हस्त-कलाओं को प्रोत्साहन देना आदि. औद्योगीकरण के कारण स्थानीय संस्कृति, कलाएं और कौशल को आर्थिक नीतियों में 'कमजोरी' ही माने जाते हैं.  

वर्ष 1991 में जब घोषित रूप से उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां अपनाई गयी थीं, तब सबसे गहरा आघात गांव और खेती पर ही हुआ था. तबसे हर सरकार ने खुलकर यह कहा है कि जब तक लोगों को गांव और खेती से बाहर नहीं निकालेंगे, तब तक आर्थिक विकास के लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकता है. ऐसा किया भी गया. परिणाम हुआ किसानों को आत्महत्याएं करना पड़ीं. बेरोज़गारी और भुखमरी बढ़ी.

जब सबसे ज्यादा आत्महत्याएं खेती, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार के कारणों से हो रही हों, तब हमें चेत जाना चाहिए. हमें मान लेना चाहिए कि कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है, क्योंकि ये चार क्षेत्र उम्मीद और संरक्षण की नींव पर खड़े होते है. यदि अपना समाज बुनियादी मानवीय संवेग और संवेदनाओं के साथ समानुभूति का लक्ष्य हासिल कर पाए, तो इन चार क्षेत्रों से जुड़े कारणों से किसी को आत्महत्या नहीं करनी चाहिए.

बहरहाल, यह घोषणापत्र देना भी आवश्यक है कि हमारी पुलिस-क़ानून व्यवस्था में आत्महत्या और उसके सही-सही कारणों का अनुसंधान नहीं होता है. आत्महत्या को क़ानून एक अपराध मानता है. यदि व्यक्ति जिंदा बच जाए, तो उसे एक साल की सजा दिए जाने का प्रावधान भारतीय दंड संहिता की धारा 309 में रहा है. सच तो यह है कि जब समाज और सरकार व्यक्ति की व्यथा और पीड़ा को उसके अपने नज़रिए से महसूस करना बंद कर देती है; तब अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति आत्महत्या की कोशिश करता है. यह जरूरी नहीं कि वह खुद को खत्म करना ही चाहता हो, पर परिणाम यही हो जाता है. जब हम, एक समाज के रूप में छात्र, युवा, किसान, महिलाओं के साथ समानुभूति के रिश्ते नहीं रख पाते हैं, तब 'आत्म हिंसा' की भावना चरम पर पंहुच जाती है.

जब एक व्यक्ति आत्महत्या करता है, तब केवल एक व्यक्ति खत्‍म नहीं होता; अक्‍सर एक परिवार और कभी-कभी परिवारों का समूह खत्‍म हो जाता है. मैं सोचता हूं कि एक समाज के रूप में हम जिस आध्यात्म और संस्कृति पर खूब विश्वास करते हैं, एक व्यक्ति के रूप में उससे उतना ही दूर क्यों नज़र आते हैं? अहिंसा, जनकल्याण और मूल्यों की चर्चा में मशगूल समाज आत्मघाती क्यों हो रहा है? क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्म किसी भी स्तर पर और किसी भी रूप में 'टूटकर बिखर जाने' का सन्देश देती है?

मसलन एक छात्र के रूप में यदि मैं परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाऊं, तो क्या मुझे आत्महत्या कर लेनी चाहिए? मसलन यदि एक किसान के रूप में यदि मेरी फसल खराब हो जाए और मुझे पर कर्जा हो जाए, तो क्या मुझे आत्महत्या कर लेनी चाहिए? या फिर मुझे कोई बीमारी हो, हो सकता है कि उससे मैं मर जाऊं; पर बीमारी से पहले ही मुझे खुद को मार लेना चाहिए? निसंदेह किसी सांस्कृतिक सिद्धांत या ग्रंथ में आत्महत्या को स्वीकार्य गतिविधि या कर्म नहीं माना गया है. इसके उलट आत्महत्या एक किस्म का धार्मिक और सामाजिक अपराध ही है. लेकिन भारतीय सन्दर्भ में आखिर वस्तुस्थिति क्या है? हमें एक तथ्य चौंकाता है. वह तथ्य भारत में आत्महत्याओं से जुड़ा हुआ है. इस देश में पिछले 15 सालों में हर एक घंटे में चार लोग कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में आत्महत्या करते हैं. इन डेढ़ दशकों में भारत में लगभग 18.41 लाख लोगों ने आत्महत्या की है. जीवन में ऐसी कौन सी परिस्थितियां बन रही हैं, जिनमें लाखों लोगों को जीवन में मुक्ति का रास्ता दिखाई नहीं देता. उन्हें ख़ुदकुशी में मुक्ति का रास्ता दिखाई देता है. ये तथ्य हमें अपने समाज, अपनी राजनीति, अपनी अर्थव्यवस्था, अपने वर्तमान ताने-बाने, अपनी शिक्षा समेत सभी पहलुओं पर एक बार फिर से विचार करने और बदलने की प्रेरणा देते हैं. (zeenews.india.com से साभार)

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सचिन कुमार जैन

लेखक आम लोगों की समस्याओं खासकर बच्चों के सवालों को लेकर सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और मुखर लेखक हैं.

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