न्यायाधीशों की टिप्पणियों के निहितार्थ निकाले जा रहे हैं तो गलत भी नहीं

खरी बात, फीचर

ऋतुपर्ण दवे

देश की व्यवस्था में सुधार को लेकर वैसे तो हमारे नेता ही चिंतित होने का पाखंड करते हैं, लेकिन जब न्यायाधीश चिंतित हों, उनकी आवाज आवाम तक पहुंचे, तो मतलब सिर्फ और सिर्फ यही कि हमारे लोकतंत्र में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। गौरतलब है कि पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इकबाल अहमद अंसारी ने हाल ही में देश के राजनीतिक हालातों पर जो टिप्पणी की, उसे सुनना, समझना पड़ेगा। उन्होंने, कानून बनाने वालों को न केवल कठघरे में खड़ा किया, बल्कि विफल करार देकर साहसिक बात कही।

सच है, राज्य विधासभाएं अपना काम ठीक से नहीं करती हैं, संसद का भी कमोबेश यही ²श्य है। काम कम, शोरगुल ज्यादा। विधायिकाओं की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए इनको सुधरना ही होगा। वो अकेले न्यायमूर्ति नहीं, उनसे तीन दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में 70 वें स्वाधीनता समारोह पर भारत के मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर का दर्द एक बार फिर झलका।

उन्होंने न्यायपालिका की लाचारी, रिक्तयों और न्याय में देरी के लिए प्रधानमंत्री और विधि मंत्री पर तंज कसा, बल्कि यहां तक कह दिया कि अब से बेहतर गुलामी के समय की न्याय व्यवस्था थी तब न्याय की समय सीमा थी।

दोनों ही टिप्पणियों में ऐसा कुछ नहीं, जो अतिरंजित लगे। न्यायमूर्ति अंसारी कटाक्ष से भी नहीं चूके। संकेतों में बड़ी बात कह दी कि सार्वजनिक कार्यक्रमों में तो माइक, डायस और कुर्सियां सब खुले रखे रहते हैं, फिर भी डर नहीं लगता, लेकिन सदन में सब कुछ फिक्स है यहां तक कुर्सियां भी। शायद इसलिए कि न जाने कब, कौन, तैश में आकर किसे उठाकर कर दे मारे।

यह कैसी विडंबना, जिन लोगों को सदनों में दलीलें देनी चाहिए वे माइक्रोफोन फेंकते हैं। जिन्हें तथ्यों और तर्को के साथ सरकारों को घेरना चाहिए, वे सदनों का कामकाज ठप्प करते। संसद और विधानसभाओं का काम जनसमस्याओं पर चर्चा करना, उनका समाधान खोजना एवं नए कानून बनाना है।

लोकतंत्र के इन्हीं उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही तो सदनों का गठन किया गया, नुमाइंदे चुने जाते हैं, मगर जब यही राह में रोड़े बनें तब विडंबना नहीं तो और क्या? फिर भी आशावाद का दामन नहीं छोड़ते हुए न्यायमूर्ति अंसारी ने यह भी कहा कि समय परिवर्तनशील है, सो बदलेगा भी, फैसला आपको करना है कि जिन्हें हमने कानून बनाने के लिए भेजा है वे अपना काम करते हैं या नहीं वो जाने, हम तो करेंगे।

इस तरह जनता को सतर्क रहने की समझाइश भी दी। न्यायमूर्तियों का दर्द वाजिब है, क्योंकि आजादी के बाद पहले ढाई दशक तक संसद ने शत-प्रतिशत काम किया, फिर घटता चला गया। हालिया एक रिपोर्ट भी बताती है कि सदन में अपने तयशुदा कार्यो में मात्र 40 प्रतिशत कामकाज ही हो पाता है।

इसी मानसून सत्र में जीएसटी जैसे तमाम विधेयक पारित होने के बाद भी संसद अपने तयशुदा कामों में महज 60 प्रतिशत ही कर पाई। जो भी हो, हफ्ते भर में दो बड़े न्यायाधीशों ने, लोकतंत्र के तीमारदारों की नीयत पर जो शक किया, उसकी बहुत साफ और कई वजहें हैं, जो उचित-न्यायोचित दोनों हैं।

देश में ऐसी बहुत उदाहरण हैं, जब नेताओं ने अपने हितों के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया और न्यायपालिका को ही उसे ठीक करने आगे आना पड़ा। 12 जून 1975, इलाहाबद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद 26 जून 1975 को आपातकाल लागू कर दिया गया।

नतीजा यह हुआ कि 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी को सत्ता विहीन होना पड़ा। बाद में संसद ने ऐसे प्रावधान किए कि अब आपातकाल लगने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। मतलब, न इलाहाबाद हाईकोर्ट, इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देता, न वो आपातकाल लगातीं, और न ही हमारी संसद इस आशंका को खत्म करने वाले कानून को बनाती। इसलिए हम कह सकते हैं, आपातकाल की आशंका इसलिए समाप्त हुई है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध निर्णय देने का एक इतिहास रच दिया था।

वर्ष 2007 एक और चर्चित प्रसंग, संसद व सुप्रीम कोर्ट के बीच खींचतान। देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई के संभरवाल की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय पीठ ने एक फैसला सुनाया।

दरअसल वर्ष 1951 में तत्कालीन सरकार द्वारा संविधान में संशोधन करके उसमें नौवीं अनुसूची जोड़ी, जिसमें यह प्रावधान किया कि अनुसूची में शामिल सभी विषय न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रहेंगे।

वैसे, नेहरू सरकार ने यह सिर्फ भूमि सुधारों से जुडे विवादों के किया था। लेकिन बाद में उसमें तमाम तरह के विषय शामिल किए जाने लगे। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि वह इस अनुसूची में शामिल विषयों की सुनवाई भी कर सकता है। इसी ऐतिहासिक निर्णय के कारण ही राज्यों में दिए गए तरह-तरह के आरक्षण फंस गए हैं।

एक और प्रसंग, 16 अक्टूबर 2015 को जब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के 99वें संशोधन को असंवैधानिक बताकर निरस्त किया, तब नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग नहीं बन पाया।

सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली बरकरार है। रोचक तथ्य, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की अनुशंसा पर केंद्र सरकार की मुहर के बाद, इकबाल अहमद अंसारी पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने वहीं भारत के मुख्य न्यायाधीश ठाकुर ने 1987 में बतौर निर्दलीय उम्मीदवार जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में रामबन से भाग्य आजमाया, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भरत गांधी से हार गए।

जाहिर है, इन्होंने भी सब कुछ करीब से देखा है ऐसे में न्यायमूर्तियों की टिप्पणियां और भी अर्थपूर्ण होती है। लेकिन जब विधायिका अपना काम ठीक से नहीं करती, तो न्यायपालिका ही रोल मॉडल की भूमिका में आकर कड़े फैसले लेती है। इसलिए न्यायाधीशों की टिप्पणियों के निहितार्थ निकाले जा रहे हैं तो गलत भी नहीं। जरूरत है, विधायिका स्वयं में बदलाव करे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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