जरूरत है मनरेगा को जिन्दा रखने की

खरी बात, फीचर

संजय पराते

2 सितम्बर को आहूत मजदूरों की हड़ताल की एक प्रमुख मांग यह भी है कि रोजगार गारंटी का विस्तार शहरी क्षेत्रों में भी किया जायें और काम के न्यूनतम दिनों की संख्या बढ़ाकर 200 की जाएं. इसके लिए वे बजट में वृद्धि की भी मांग कर रहे हैं. यह मांग मनरेगा की सार्थकता को भी दिखाती है, बावजूद इसके कि यह योजना तमाम बुराईयों से ग्रस्त है.

देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मनरेगा का महत्त्वपूर्ण स्थान है. इसके बावजूद सत्ताधारी पार्टियों ने इसका क्रियान्वयन कभी भी ईमानदारी से नहीं किया और इसको 'निर्जीव' बनाने की कोशिशें जारी है. मनरेगा में काम मांगने वाले सभी परिवारों को 100 दिन का काम देने के लिए ही आज 90000 करोड़ रुपयों की जरूरत है, जबकि बजट आबंटन है केवल 30-32 हजार करोड़ रूपये ही. मजदूरों को 100 दिन काम की जगह औसतन 47-49 दिन काम ही मिल रहा है, लेकिन सही समय पर भुगतान की कोई गारंटी नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर 42% मजदूरों को, तो छग प्रदेश स्तर पर 81% लोगों को देरी से भुगतान हो रहा है और इससे इस योजना के प्रति मजदूरों की अरुचि बढ़ना स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ में इस वर्ष जून अंत तक मजदूरी का 300 करोड़ रुपयों से अधिक बकाया था और देरी से भुगतान के मामले में देश में दूसरे स्थान पर खड़ा है. मजदूरी दर भी असमान है, केरल में 232 रूपये, तो राजस्थान में 116 रूपये प्रतिदिन ही -- याने न्यूनतम मजदूरी से भी ग्रामीण मजदूर वंचित हैं. केन्द्र की भाजपा सरकार ने मजदूरी और सामग्री का अनुपात 60:40 से बदलकर 51:49 कर दिया है. इससे रोजगार उपलब्धता में गिरावट के साथ ही भ्रष्टाचार की आशंका भी बढ़ी है.

लेकिन जिस तरह देश में खेती-किसानी का संकट बढ़ रहा haiहै और संकर से जुड़े दुष्परिणाम -- भूमिहीनता, ऋणग्रस्तता, पलायन, किसान आत्महत्या आदि -- सामने आ रहे हैं, मनरेगा की प्रासंगिकता बढती जा रही है. तमाम अध्ययन भी यही दिखाते हैं कि मनरेगा ने किस तरह ग्रामीण जीवन को सबल बनाया है. रिज़र्व बैंक के अनुसार, इससे ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा-इतर कार्यों में मजदूरी दरों में 10% की वृद्धि हुई है. नेशनल कौंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च के अनुसार, इसके कारण देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 25% परिवारों की गरीबी कम हुई है. मनरेगा में लगभग आधी महिला मजदूर हैं और इसने महिला-पुरूष मजदूरी में समानता का सबक भी सिखाया है, जो कि निजी क्षेत्रों में श्रम कानूनों के जरिये आज भी हासिल नहीं किया जा सका है. जिस हद तक मनरेगा ने ग्रामीणों को सही अर्थों में रोजगार दिया है, उस हद तक उनका पलायन भी रूका है. इस क़ानून से सबसे ज्यादा लाभान्वित हुए हैं आदिवासी-दलित-महिला व कृषि मजदूर जैसे वंचित सामाजिक-वर्गीय समूह, जिन्होंने आर्थिक सशक्तिकरण के कारण ग्रामीण सामंती प्रभुओं की दादागिरी को चुनौती दी है. इसलिए निहित स्वार्थों के लिए मनरेगा हमेशा आंखों का कांटा बना रहा है.

हमारे देश का कृषि संकट यह है कि देश में आज भी आधे से ज्यादा परिवार खेती-किसानी से जुड़े हैं, जो कि घाटे का सौदा हो गया है. वे खेती केवल इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि उनके पास आजीएविका का कोई दूसरा साधन नहीं है. जिन्होंने हिम्मत दिखाई है, वे दिहाड़ी मजदूर बनकर रह गए हैं -- उनके लिए शहरों में काम नहीं और गांव वे छोड़ नहीं पाए. ऐसी हालत में मनरेगा ने उन्हें 'राहत' जरूर ही दी है. इसीलिए देश के गरीबों को जिन्दा रखने के लिए आज मनरेगा को जिन्दा रखने की जरूरत है.

वामपंथ के दबाव में संप्रग सरकार को मनरेगा लागू करना पड़ा था. भाजपा-नीत सरकार वामपंथ के किसी भी निशानी के जिन्दा रहने के खिलाफ है. सो, मनरेगा उसके खुले-दबे निशाने पर है. इसीलिए आम जनता के हितों के लिए चिंतित तमाम संगठनों को इसे अपने एजेंडे में लेना चाहिए.

(लेखक छत्तीसगढ़ माकपा के सचिव हैं. email: [email protected])

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