विनय द्विवेदी
आपको शीर्षक कुछ अजीब लग रहा होगा। मेरी भी ये भाषा नहीं है लेकिन क्या करें। कब तक भाषा की शालीनता और शब्दों की गरिमा को गले में लटका कर घूमूं। जब चहुँ ओर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गरिमा को गिराया जा रहा है तब मैं गरिमा को गले में टांग कर क्यों घूमूं। आप अपनी गरिमा के दोगलेपन को छिपा कर वार करने की वजह खोज लेते हो। अगर आपको भी मूतना महंगा और भारी लगने लगेगा तो आप भी इस पर सवाल उठाओगे। ये आपकी मर्जी है कि आप मेरे लिखे को पढ़े या ना पढ़ें। मैं तो लिखूंगा और खूब लिखूंगा।
अगर आपको बार बार मूतने की बीमारी है तो देश की राजधानी दिल्ली भूलकर भी मत जाइए। जितने पैसे की दिन भर में चाय नहीं पियोगे उससे ज्यादा खर्चा मूतने पर आएगा। मैं तीन दिन दिल्ली में घूमा, मूतने पर 100 रुपये खर्च हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान की कद्र करने के कारण सड़क पर चाहे जहाँ तो खड़ा होकर मूत नहीं सकता था इसलिए सुलभ शौचालय में पैसे देकर मूतता रहा। इसमें हो सकता है आपको कुछ गलत नहीं लगे क्योंकि आप तो अब महंगाई पर भी नहीं बोलते। लेकिन मुझे बुरा लगा क्योंकि आदमी शौक से तो मूतता नहीं, ये आवश्यक जरूरत है। कुछ लोगों को घूम घूम कर और अलग अलग जगह मूतने का शौक होता है वे इसे गंभीरता से भला क्यों लेंगे। लेकिन जरा सोचिए दिल्ली में मजदूरी, हम्माली और खोमचे वाले लोगों के लिए दिन भर में पचास रुपये मूतने पर खर्च करना कितना भारी पड़ेगा। फिर भी आप स्वच्छ भारत बनाने के सपने घूम घूम कर देख रहे हैं तो आपकी समझदारी पर तरस आता है। अगर इस सवाल को हम उठाएंगे तो देशद्रोही बोल दोगे।
खैर, मेरे गाँव में मूतने पर कई कहाबतें है, मुहाबरे भी हैं, आपके यहाँ भी कई कहाबतें होंगी। चकरी मार कर मूतना और मूतना भूल जाओगे। ये दो कहाबतें अब ठीक से समझ आ रही हैं। गाँव के बड़े-बूढ़े कहते हैं फलाना आजकल चकरी मार के मूत रहा है। गाँव के कई बच्चे मज़े मज़े में घूम घूम कर मूतते हैं। गाँव में बच्चों के मनोरंजन के लिए जब खेल के मैदान या अन्य कोई साधन नहीं होगा तो वो अपने मनोरंजन के लिए तरह तरह की तरकीबें खोज लेते हैं। लेकिन ये कहाबत कुछ और ही कहती है। जब गांव का दबंग अपनी दबंगई में दूसरों को परेशान करता है तब उसपर ये कहाबत लागू होती है। देश में भी यही हालात हैं जिसकी जहां दबंगई चल रही है वहां वो चकरी मार कर मूत रहा है।
अब एक और कहाबत की बात करते हैं, मूतना भूल जाओगे। ये भी देश भर में लागू हो रही है। इसका अर्थ ये है कि गाँव का दबंग दबे कुचले लोगों को धमकाकर या ऐसी स्थितियां पैदा कर देता है कि बेचारे आम लोग असहाय हो कर सबकुछ चुपचाप बर्दास्त करते हैं।
देश को गाँव मानकर जरा कल्पना कीजिये कि ये दोनों कहाबतें आज जस की तस दिखाई नहीं दे रहीं क्या। अगर आप नहीं देख पा रहे हैं तो आपके चश्में और नज़र में समस्या है। मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अलगाववाद, आतंकबाद, बहू बेटियों की सुरक्षा जैसे सवालों को एजेंडे से बाहर किया जा रहा है। झूठ, वैमनष्य फैलाने वाले एजेंडे गढ़े जा रहे हैं। बिहार में सत्ता की संलिप्तता में बच्चियों को लगातार नोंचा जाता रहा लेकिन देश अंधेरी काली रात में गहरी नींद में सोया हुआ है। कुछ जुगनू अपनी आदतों के कारण इस सवाल को लेकर जरूर टिमटिमा रहे हैं।
कुछ लोग कह देते हैं कि हम तो तुम्हारी बात पर मूतेंगे भी नहीं। तो कुछ लोग बोल देते हैं कि मैंने मूत दिया तो बह जाओगे। इन दोनों कहाबतों के भावार्थ को समझने की कोशिश करते हैं। सबसे पहले तो ये जो कुछ लोग इन दोनों कहाबतों को बोलते हैं। अगर बहुत से लोग इन दोनों कहाबतों को बोलने लगें और अमल करने लगें तो फिर कल्पना कीजिये शीन बदल कर रहेगा। वो इसलिए कि अगर बहुत से लोग आपकी बात पर मूतना बंद कर दें यानी आपकी बात सुनना बन्द कर दें तो फिर आपका भाषण जो पहले बहुत से लोग सुनते थे अब कुछ लोग ही सुनेंगे। और अगर स्थितियां ऐसी पैदा हो गईं जो कि पैदा होते दिख रही हैं तो ना बहुमत काम आइयेगा ना जोड़तोड़ काम आएगा। दूसरी कहाबत का मैंने जिक्र किया है, कि कुछ लोग बोलते हैं कि मूत दिया तो बह जाओगे। इसका भावार्थ भी गहरा है। लोग भले आज संगठित स्वर में नहीं बोल रहे लेकिन आम लोगों की परेशानियों की तस्वीरें और खबरें अब भी आ रही हैं जब देश के मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता के डर से मूत रहा हैं या सत्ता की दलाली में मूते जा रहा है। अब सोचिये जिस दिन बहुत से लोग मूतने पर आमादा हो गए तो सत्ता बहेगी या रहेगी। सत्तर सालों में ये बहुत से लोगों की जो बात मैं लिख रहा हूँ वो करके दिखा चुके हैं। इस देश की जनता कई सरकारों पर मूत चुकी है।
इस कथा को यहीं पर विराम देते हुए अंतिम वाक्य बता रहा हूँ, मूतना भी भारी पड़ने वाला है। समय रहते चेतिये और ऐसा मूतिये कि मूतने के बाद आपको राहत महसूस हो।