राग तेलंग
आधुनिक तकनीकी युग में भी अतार्किक आस्था और अंधविश्वास जिस तरह से अब भी जड़ें जमाए बैठे हैं यह केवल आश्चर्य का विषय नहीं है बल्कि हर खुली सोच वाले के लिए विश्लेषण का मुद्दा है | जन-सामान्य में भूत-प्रेत, झाड़-फूंक, ढोंगी संत-बाबा विषयक घटनाओं से हम आए दिन परिचित होते ही रहते हैं परंतु क्या विज्ञान जगत में भी सब कुछ साफ-सुथरा है ? क्यों भारत और एशिया के ऐसे देश, जहां की विज्ञान चिंतन-दर्शन परंपरा समृद्ध रही है, मौलिक खोजों की दिशा से भटक जाते हैं ? विज्ञान की आड़ में अंधविश्वास के ये प्रतिगामी मूल्य वैश्विक स्तर पर क्यों पनपते हैं और कैसे पश्चिम से चली आधुनिक अंधविश्वास की बयार तीसरी दुनिया की मौलिक खोज और वैज्ञानिक सोच की प्रगति में सोची-समझी बाधाएं खड़ी करती है, इसकी बारीक पड़ताल करता यह विशेष आलेख |
दुनिया में बहुत सारे मुद्दे एक ही समय में बहस में छाए रहते हैं। फिर वह मामला चाहे दुनिया को चलाने वाले मुद्दों का हो या ऐसे मुद्दे जिनसे चलती हुई दुनिया को बहुत ज्यादा फर्क न पड़े। उदाहरण के लिए ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा हो या हो ओज़ोन परत में हुए नुकसान का या फिर एलियन यानी परग्रही जीवों जैसे मुद्दे का।
ऐसे कुछ लोग जिनके लिए विज्ञान आराम-तलब के क्षणों में मनोरंजन का मुद्दा है वे एलियन के मुद्दे पर बहुत रस लेते दिखाई देते हैं। उनके अपने जीवन का बहुत-सा अंश इसी जुगाली में जाता है। उनके दृष्टिकोण में आसपास घटित हम नस्लों की महत्ता तो दूर अन्य जीवों के प्रति सहानुभूति भी नदारद रहती है। विज्ञान की उनकी समझ इतनी सतही होती है कि वे एलियन वाले मुद्दे को कुछ यूं प्रस्तुत करते हैं कि जैसे चिराग रगड़ा नहीं और एलियन प्रकट हुआ।
मनुष्य की लगभग एक लाख साल की विकास यात्रा अब इस पड़ाव पर पहुँच पाई है कि वह पृथ्वी के पार अपने सौरमंडल और सौरमंडल के पार भी ताक-झांक कर सकता है। उसके पास उपकरण हैं अंतरिक्ष में झांकने के लिए साथ ही साथ अवलोकनों के गणित को समझने का विज्ञान भी।
अंतरिक्ष की उन्नत प्रौद्योगिकी और तकनीकी कौशल होने के बावजूद कई देशों के वैज्ञानिक एलियन विषयक मामलों में विनम्र नज़रिया अपनाते हैं और इस बहस को सिर्फ इतने ही उपयोग का मानते हैं कि एक उत्सुकता का माहौल तैयार हो रहा हो तो उसमें विज्ञान चेतना के लिए पर्याप्त वातावरण बने, बस इतना ही। मगर होते-होते यह बहस कपोल-कल्पना के आगे नहीं जा पाती और इस बहस-मुबाहिसे के सिरमौर अपने आपको स्थापित करने की हास्यास्पद स्थिति में देखे जा सकते हैं।
आईये इसे दो हिस्सों में समझते हैं कि एलियन का मामला दरअसल है क्या ।
चलिए मानकर चलते हैं कि एलियन एक वैज्ञानिक अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं फिर आगे बढ़ते हैं! अब हम ऊपर मान ली गई बात को सिद्ध करने की तरफ बढेंगे और हमारी मान्यता को झुठलाने वाले तथ्यों पर भी गौर करेंगे। दोनों के आपसी अनुपात के आधार पर हम स्वतंत्र होकर सोच सकेंगे कि पलड़ा किस ओर भारी है।
पहले तो हम बताते चलें कि पृथ्वी पर जीवन छह मूलभूत तत्वों के कारण बना है। कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन,नाइट्रोजन, कैल्शियम और फास्फोरस। इसे हम कार्बनिक संसार भी पुकार सकते हैं यानी कार्बन आधारित जीवन। अन्य तत्व आधारित (इन छह तत्वों के अलावा) जीवन की कल्पना पूरे ब्रह्मांड में कपोल कल्पना की श्रेणी में मानी जा सकती है।
कार्बन आधारित शब्दावली हमने इसलिए चुनी क्योंकि समूची पृथ्वी पर कार्बन ही अकेला ऐसा तत्व है जो पानी और समपरिस्थियों के रहते अपने एक करोड़ से ज्यादा विभिन्न यौगिकों का निर्माण करता है और स्थायी बंधन बनाने की विशेषता रखने वाला तत्व है। कार्बन की एक और खासियत है कि यह तत्व अपने तरह की रासायनिक लड़ियां बनाने में किसी अन्य तत्व के मुकाबले कहीं आगे है। यह हम कोशिका स्तर पर रासायनिक अभिक्रिया की विशेषता के संदर्भ में कह रहे हैं। रासायनिक प्रकृति में स्थिरता और रासायनिक कड़ियां बनाने में सक्रियता जैसी विशेषताएं प्रमुख रूप से इसे पृथ्वी का सिरमौर तत्व बनाती हैं।
हम आप सब, मुख्य रूप से कार्बन तत्व से निर्मित हैं और साथ ही विभिन्न अंशों में अन्य पांच तत्वों से भी जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। स्कूल-कॉलेजों के दिनों में जिन्होंने कार्बनिक रसायन शास्त्र की मोटी किताब पढ़ी होगी वे समझते होंगे कि कार्बन के जैसी बहुआयामी रासायनिक प्रकृति किसी अन्य तत्व के पास नहीं। पृथ्वी पर यह गौरव सिर्फ कार्बन को ही हासिल है कि उसकी शान में इतने कसीदे पढ़े जा सकते हैं कि दुनिया में पाए जाने वाले अन्य 81 तत्व भी शरमा जाएं। आप सोच रहे होंगे कि बात एलियन की हो रही थी और यह लेखक तो कार्बन पर आकर टिक गया। भला ऐसा क्यों ? जी हां ! मैं भी यही सोच रहा था। हमारे सहित जो ये सारी सृष्टि है कार्बन (अन्य पांच तत्वों के साथ-साथ) से रची-बुनी है। लेकिन जब हम एलियन की कल्पना करने वालों की बातें सुनते हैं तो वे उन जीवों की निर्मिति के तात्विक आधार के बारे में ज़रा भी बात नहीं करते। वे यह भी नहीं बताते कि पृथ्वी पर जो जीव मौजूद हैं उनमें अधिकांश विविध प्रकार के जीव-जंतु समुद्र में पानी के भीतर हैं और पृथ्वी सहित समुद्र जीवन के लगभग 86 प्रतिशत जीवों के बारे में आज भी हमारी जानकारी नहीं के बराबर ही है। याद रहे पृथ्वी पर पानी दो तिहाई भाग है बाकी एक तिहाई भाग जमीन है। (दोस्तों समुद्र वाले नामालूम जीवों को पता न चले कि जमीं वाले अंतरिक्ष के पार किसी अज्ञात से आने वाले जीव के स्वागत में लगे हैं वरना उन्हें अपनी उपेक्षा पर दुख होगा।)
जिस तरह अंतरिक्ष में आवाज़ नहीं उसी तरह धरती पर मौजूद समंदरों में भी सन्नाटा पसरा है मगर हमें यह तो पता है वहाँ जीवों के विविध प्रकार हैं, वनस्पितियां है जिनके बारे में शोध कर हम मानव जाति की भलाई के लिए कुछ उपाय कर सकते हैं। मेरा आशय शोध की दिशा मोड़ने से है।
माना कि अंतरिक्ष के पार जीवन की संभावना हो। परंतु संयोग और संभाविता के आधार पर गणना करें तो पाएंगे कि इसकी संभावना नगण्य के बराबर ही है। याद करें जब पूरे विश्व में रेडियो तरंगों के माध्यम से जर्मनी ओलंपिक का सन 1936 में प्रसारण हुआ तब से लेकर आज तक यानी 80 वर्ष पश्चात भी उन तरंगों के उत्तर स्वरूप कोई प्रतिक्रिया हमें प्राप्त नहीं हुई है ,यह जानते हुए भी कि रेडियो तरंगे लगभग प्रकाश की गति से यात्रा करती हैं। (कल्पना कीजिये वे कितने कि.मी. की दूरी तय कर चुकी होंगी) ।
जैसा कि मैंने प्रारंभ में ही कहा कि आधुनिक मनुष्य की यह विकास यात्रा एक लाख साल पुरानी तो है ही। तो क्यों नहीं ज्ञात स्रोतों के आधार पर यह माना जाए कि अन्य स्थानों पर हमारी तरह कार्बन आधारित जीवन की कल्पना दूर की कौड़ी मात्र है। क्या हमें अपना फोकस बदलने की जरूरत नहीं है ?
यहां एक बात और कि मनुष्य निर्मित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्रणाली जो अभी शैशवावस्था में है मनुष्य को अपना फोकस बदलने पर अवश्य ही मजबूर करेगी और तब वैज्ञानिकों के उस उपेक्षित नज़रिये की कद्र भी होगी जो पृथ्वी पर उपलब्ध दयनीय जीवन परिस्थितियों की बेहतरी के लिए एलियन की बहस में शामिल होने से बचते रहे हैं। जीसस का अंतिम वाक्य हमारे इस सब कहे का निचोड़ है – हे ! भगवान, इन्हें माफ करना ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं।
अर्थात ! यानी जीवन कहीं भी होगा तो कार्बन आधारित जीवन ही होगा,किसी अन्य तत्व आधारित जीवन की परिकल्पना और उसके अनुकूल परिस्थितियों वाले ग्रह की कल्पना और सैकड़ों-करोड़ों-अरबों जीवन रचने वाले कारकों का होना अभी असंभव के नजदीक की बात है। तो क्या भविष्य में मनुष्य ही ऐसे मशीनी मानवों की सृष्टि करेगा जो मनुष्य के प्रतिनिधि-संदेश वाहक बनकर सुदूर अंतरिक्ष में लंबी-लंबी दूरी तय कर सूर्य से अपनी ऊर्जा प्राप्त करते-करते आगे भविष्य की यात्राएं करेंगे ? कैसी होगी मशीनी मानव की वह दुनिया और उनकी जीवन शैली-कार्य प्रणाली...!
कहीं यह बहुत जल्द विश्वास कर लेने की हमारी आदत का मामला तो नहीं ! विज्ञान पसंद करने वालों और विज्ञान संचारकों से हम संकोच भरी नैतिक उम्मीद करते हैं कि विज्ञान को रहस्यलोक की ओर ले जाने वाला वाहन न मानकर रहस्यों से पर्दा उठाने वाला सेवक मान कर आगे बढ़ें। वैसे भी अंधविश्वास से जकड़े हमारे समाज में अंधविश्वासों को बरकरार रखने के लिए विज्ञान का सहारा लिया जाता रहा है और हम अपने दैनंदिन जीवन में इतने रहस्यवादी होते जा रहे हैं कि जानकारी बांटना तो दूर जानकारी पर रहस्य का ताला लगाने में हमें ज्यादा मजा आता है । हमारा मानस इतना वैयक्तिकतावादी है कि हमें रहस्यों के आवरण में लिपटी चीज़ें संभालकर रखने की आदत-सी पड़ी हुई है। इससे हमें लगता है कि हमारे व्यक्तित्व में चार चाँद लग जाएंगे और हम विशिष्ट हो जाएंगे। यह विशिष्टताबोध विज्ञान के लिए और विज्ञान प्रसार के लिए घातक है। दरअसरल सारे रहस्यों का रहस्य यह है कि कहीं कोई रहस्य नहीं है। चीजों- घटनाओं को हम ही बंद आंखों से, बंद दिमाग से, बंद दिल से देखते हैं। प्रकृति के साथ एकाकार हो जाने के बाद आप पाएंगे आपके भीतर से प्रकृति बोलने लगी है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और आविष्कारकों की रचना प्रक्रिया ऐसी ही रही है । भारत के अग्रणी अंतरिक्ष विज्ञानी डॉ.जयंत विष्णु नार्लीकर ने अपनी एक पुस्तक में आंकड़ों के साथ इस तथ्य को प्रस्तुत किया है कि बाह्य अंतरिक्ष में किसी भी अन्य स्थान पर जीवन होने की संभावना इतनी नगण्य क्यों है। दर असल दैनिक जीवन में हम जो गणित अपनाते हैं उसमें हमें यह ध्यान ही नहीं रह पाता कि हम अत्यल्प संभावना वाली चीज़ों और घटनाओं को बहुत अधिक तूल दे देते हैं और उसी तथ्य या घटना से जुड़ी अधिकाधिक संभावनाओं की उपेक्षा कर देते हैं। ऐसा क्यों है ? दरअसल हमारे मस्तिष्क की बनावट कहें या बुनावट कुछ ऐसी है कि यह नई चीजों के लिए एकदम से तैयार नहीं होता। प्रतिरोध करता है। यह हिचक निश्चित ही उसकी रिफ्लेक्स एक्शन/प्रतिरक्षा प्रणाली से जुड़ी हो सकती है लेकिन मनुष्य के विकास में इसे बाधक के रूप में भी दर्ज किया जा सकता है। आप गौर करें तो यह हिचक तोड़ने के कारण ही चकमक पत्थर से दुनिया चमकीली हुई, आग को काबू में करना सीखा गया, पहिए का आविष्कार हुआ, मशीनी पंख बने और अंततः आज राकेट बनने तक की यात्रा पर हम आ पहुँचे। जिन्होंने हिचक-भय पर काबू पाया उन्होंने नायकों का दर्जा हासिल किया,इतिहास बनाया। ऐसा मानस जब एक बड़े समूह या समाज का बन जाता है तो निकृष्टतम परंपराओं,कर्मकांडों, रीतियों का पहिया उलट जाता है और नवोन्मेषी समाज की संरचना प्रारंभ होती है। यह आलेखकार इस स्वप्न के लिए “ आमीन ! “ ही कह सकता है । |
अब कार्बन या हाइड्रोकार्बन दुनिया से अलग सिलिकॉन दुनिया की बातें
एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमता वाली मशीनें यानी रोबोट यानी ऐसी एक अलग दुनिया जो सिलिकॉन आधारित बारीक इलेक्ट्रॉनिक्स तकनीक से बुनी-बनी हो। एआई का मामला आजकल छाया हुआ है। दुनिया के दो बड़े दिग्गज व्यवसायी इलोन मस्क और मार्क जुकरबर्ग एआई टेक्नॉलॉजी के पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क दे रहे हैं। मस्क एआई तकनीक से मनुष्य के सीमित जुड़ाव के पक्ष में हैं और इसकी व्यापकता के खतरों के प्रति आगाह भी करते हैं उनकी चिंता और सरोकारों से बिल गेट्स और स्टीफन हॉकिंग की भी सहमति जाहिर है। वहीं दूसरी ओर फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग मनुष्यत्व के स्वास्थ्य और उसकी सुरक्षा के तर्कों के सहारे एआई तकनीक के पक्ष में बात कर रहे हैं। उनका कहना है तकनीक का अच्छा या बुरा इस्तेमाल मनुष्य के हाथ में है। मगर याद करें हिरोशिमा-नागासाकी विभीषिका के बाद आइंस्टाइन की हताशा को! क्या इतिहास से सबक लेकर हम यह भी नहीं समझे कि तकनीक का मानवहित में इस्तेमाल का विवेक भविष्य में राजनेता कर सकेंगे, इस दौर में जैसे-जैसे अतिवादी राजनेताओं के हाथों में सत्ता पहुँच रही है, उससे तो ऐसा क़तई नहीं लगता !
एआई यानी सिलिकॉन आधारित जीवन प्रणाली के बारे में अब कुछ बातें करते हैं।
मनुष्य प्रजाति के समांतर मनुष्य ने अपने कामों की जटिलता कम करने और समय बचाने के लिए मनुष्य के जैसे ही मगर निर्जीव उपकरण बनाए हैं। कम्प्यूटर या स्मार्ट फोन के उदाहरण यह बात समझने के लिए काफी हैं। आपको याद होगा आईबीएम का कम्प्यूटर डीप ब्लू जिसने विश्व चैम्पियन कास्पोरोव को शतरंज में हरा दिया था। स्वचालित कार बनाने के पीछे भी एआई के डेवलपरों का दिमाग है। हाल ही में आई रजनीकांत की फिल्म रोबोट एआई का मुख्य उदाहरण है। इसी क्रम में स्टार वार की फिल्मों के उदाहरणों को क्रमिक रूप से देखा जा सकता है। एआई की मशीनों को अलग-अलग श्रेणी में अलग-अलग ज़रूरतों के मुताबिक विकसित किया गया है और मनुष्य के समांतर एआई रूपी मनुष्य का विकास इसका चरम होगा। यह दिलचस्प है कि अरबपति उद्यमी इलोन मस्क जिन्होंने एआई के डीप माइंड प्रोजेक्ट में निवेश कर रखा है। एआई मशीनों के खतरों के प्रति चिंतित भी है। भविष्य में एआई मशीनें ऐसी होंगी जो प्रतिक्रिया करने में सक्षम होंगी, उनकी सीमित स्मृति होगी, मानव के विचारों और व्यवहारों से जुड़ी भावनाओं को समझकर सामाजिक रूप से व्यवहार करेंगी तथा उनमें अपने आप को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रतिनिधित्व करने की क्षमता होगी और अपने अस्तित्व के प्रति जागृत होंगी। यही अंतिम बात आखिरी स्तर पर विकसित एआई का चरम होगा जिसके परिणामों को लेकर वैज्ञानिक सशंकित हैं। लेकिन क्या आपको लगता है एआई रोबोट्स की दुनिया रचे जाने के पीछे मानव जाति की सहायता का ही एकमात्र उद्देश्य निहित है ? शायद नहीं ! भविष्य में ये एआई दूत शायद ऐसे ग्रहों में भेजे जा सकेंगे जहाँ हमारे यहाँ की तुलना में अधिक तापमान है और मनुष्य का वहाँ रह पाना किसी भी हाल में संभव नहीं और अकल्पनीय दूरी तक यात्रा के लिए ये एआई मशीनें ही सक्षम होंगी, मनुष्य के प्रतिनिधि के रूप में। ये मशीनें सिलिकॉन धातु से बनी होती हैं जैसा कि लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक परिपथों-चिप आदि में इसके इस्तेमाल होने के बारे में हम जानते ही हैं। सिलिकान आवर्त सारिणी में कार्बन समूह से संबंधित है इसीलिए उसमें कार्बन के जैसे ही अनेक विशेष गुण भी हैं। अंतरिक्ष में सिलिकॉन पृथ्वी सहित अन्य चट्टानी ग्रहों में बडी मात्रा में मौजूद है। कल्पना कीजिए कि सिलिकॉन से बने एआई मनुष्य धरती से दूर किसी अनाम ग्रह में अपने जैसे ही एआई मनुष्य का उत्पादन करने लगें तो उनकी सभ्यता और समाज का चेहरा कैसा होगा।
कह सकते हैं सिलिकॉन यौगिकों से बने इस प्रतिमानव की रीढ़ की हड्डी सहित उसका दिल भी सिलिकॉन का होगा। दिलचस्प यह भी है जानना कि सिलिकॉन के यौगिक एक ही तरह से रासायनिक व्यवहार नहीं करते, उनके गुणधर्म-व्यवहार अलग-अलग होते हैं परिस्थितियों के मुताबिक। ऐसी दुनिया जो हमारी हाइड्रोकार्बन आधार की दुनिया के समांतर सिलिकॉन आधिारित दुनिया होगी, जो याद करेगी कि उसका पूर्वज मनुष्य था जो जैविक रूप से कही भी उससे जुड़ा नहीं था। पृथ्वी के मानव का मानस वंशज। आप समझ ही गए होंगे सिलिकॉन से बनी दुनिया को जीवन ऊर्जा के लिए उन चीज़ों/तत्वों की कतई ज़रूरत नहीं होंगी जिनसे हमारा जीवन चलता है। हाँ! मगर वे भी आग से डरेंगे। अगर आग को काबू में करना न सीखे तो ! बताते चलें कि सिलिकॉन आधारित जीवन के पक्ष में हम सिलिकॉन के यौगिक सिलिकोन के सभी तरह से अनुकूल होने के कारण ही बात कर रहे हैं जो एआई जीवों की परिकल्पना के लिए एक सहूलियत वाला तथ्य है।
आपने देखा होगा सिलिकोन,विद्युत इंसुलेटर या खाना बनाने के ऐसे उपकरण जो उच्चताप पर काम करते हैं, में प्रयोग होता है, आम तौर पर 250 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर। लेकिन दिक्कत यह है कि जिस सिलिकोन यौगिक आधारित जीवन प्रणाली की हम बात कर रहे हैं जब वह स्वतंत्र रूप से पृथ्वी पर ही नहीं पाया जाता इसलिए यह कहना मुश्किल होगा कि कहीं अन्य ग्रह या उपग्रह पर सिलिकोन स्वतंत्र रूप से उपलब्ध हो ही । हालांकि पृथ्वी का ऊपरी हिस्सा जो 90 प्रतिशत से भी अधिक सिलिकेट या कहें तो रेत है, ऐसा ही अन्य चट्टानी ग्रहों पर भी संभव है, जिसका एक सहयोगी यौगिक सिलिकोन है,इसके स्वतंत्र रूप से उपलब्ध होने के प्रमाण अब तक की गई खोजों में नहीं मिले हैं।
अंत में अंतरिक्ष में किसी अन्य स्थान पर परग्रही जीवों के होने की संभावना पर बात !
मान लीलिए आप एक सिक्का उछालते हैं और अगर आपको अनुमान लगाना है कि उसका अंक लिखा हुआ भाग जमीन पर ऊपर की ओर होगा कि नहीं तो इसकी संभावना आधी है और इसी तरह अगर आपको दो सिक्के दिए जाएं और उनके अंक लिखे दोनों भाग जमीन पर ऊपर को दिखाई दें तो इसकी संभावना पहले से भी आधी है । इसी तरह सिक्के यदि बढ़ते चले जाएं तो संभावनाएं गुणक/घातों में कम होती जाएंगी (सरल रूप में एक्सपोनेंशियली कह सकते हैं) सिक्के यहाँ जीवन के होने की अनुकूल परिस्थितियों के संकेत हैं और अंक लिखा मनोवांछित हिस्सा जीवन का प्रतीक। साफ है कि यह आंकड़ा नगण्य की ओर जाता प्रतीत होता है। एलियन्स या परग्रही जीवन होने की बहस अगर हमारे आसपास का बहुत बड़ा स्थान घेरने लगे तो समझ लीजिये हम अपने हिस्से में आए अमूल्य समय के साथ छल कर रहे हैं। जी हाँ ! अब मैं कह सकता हूँ कि -
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।
सन्दर्भ सामग्री स्रोत ; नासा,विज्ञान विश्व,कविता कोश एवं अन्य वेबसाइट्स व ब्लॉग, चित्र साभार ; गूगल