जयराम शुक्ल
सुबह सुबह मित्र की एक झन्नाटेदार पोस्ट पढ़ने को मिली- कालाधन वापस नहीं आया, 2जी स्कैम हुआ ही नहीं, गंगा अभी तक मैली हैं, मेरे खाते में पंद्रह लाख भी नहीं पहुँचा, माल्या मौज में है, वाड्रा खुले में घूम रहे हैं, सोचता हूँ कि क्या मैंने अपना वोट मोबाइल के सिम को आधार से लिंक करवाने के लिए दिया था.
सोशल मीडिया आम भारतीय मानस का सचेत प्रवक्ता बन चुका है। जितने बढिया विश्लेषण मीडिया से नहीं आते उससे भी कहीं अच्छे और वस्तुनिष्ठ सोशल मीडिया से प्रकट होते हैं। यह देखकर उम्मीद जगती है कि सरकारें अब किसी भी गंदगी को कालीन के नीचे नहीं छिपा सकतीं।
कोयला और 2जी स्पेक्ट्रम पिछले चार साल से हर विवेकवान भारतीय के मस्तिष्क में पुराने जमाने के फोन की घंटी की तरह घनघना रहे हैं। अदालत के फैसले के बाद यह लगने लगा है कि ये घपले घोटाले क्या राजनीतिक प्रहसन बन के रह गए हैं? क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की छाती को रंगमंच बनाकर ऐसे ही खेले जाते रहेंगे? और ऐसे प्रहसनों से भ्रमित होकर अपने वोटों के जरिए सत्ता के संदूक की चाभी बारी बारी से इन्हीं मौसेरे भाइयों को सौंपते रहेंगे? ये कुछ ऐसे गंभीर प्रश्न हैं जो शायद हर भारतीय के अवचेतन में है, भले ही उसका मानस सत्ता और विपक्ष के बीच बँटा हो।
अस्सी के शुरुआती दशक में जब मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी था तब अखबारों से स्वाभाविक रुचि के चलते दो मामले सुर्खियों में देखा करता था। एक अंतुले का सीमेंट घोटाला जिसे इंडियन एक्सप्रेस के अरुण शौरी ने खोला था। दूसरा पूर्व प्रधानमंत्री मंत्री मोरारजी देसाई व सेमूरहर्ष के बीच सीआईए मुखबिरी विवाद। महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अंतुले पर आरोप था कि उन्होने राशनिंग की सीमेंट बिल्डरों को दे दिया और इसकी कमाई का बड़ा हिस्सा इंदिरा गांधी के पास पहुँचा है। इंदिरा गांधी की आसमयिक मृत्यु न होती तो 84 का चुनाव इसी घोटाले की छाया में लड़ा जाता। यह मामला उन रामनाथ गोयनका के इंडियन एक्सप्रेस ने उठाया था जिनकी बिल्डिंग को अपातकाल के दरम्यान सरकार ने ढहा दिया था। गोयनका खुद भी जयप्रकाश नारायण के सहयोगी और जनता पार्टी के सूत्रधारों में से एक थे। अंतुले कांड का हश्र क्या हुआ शायद ही कोई जानता हो। पर इतना पता है कि इसमें न किसी को सजा हुई और न ही कोई राशि की वसूली।
सेमूरहर्ष और मोरारजी का मामला कुछ अलग था। 1983 में पुल्तिजर पुरस्कार विजेता अमेरिकावासी सेमूर की एक पुस्तक आई थी-दि प्राइस आफ पावर, इसमें सेमूर ने लिखा था कि मोरारजी अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के 20000 डालर सालाना के पे रोल पर मुखबिर थे व सन् 71 के भारत-पाक युद्ध के दौरान भारत की महत्वपूर्ण सामरिक जानकारी अमेरिका से साझा की थी। निवृतमान प्रधानमन्त्री पर ऐसे संगीन आरोप से भूचाल आ गया। मोरारजी भाई ने अमेरिकी अदालत में सेमूर पर मानहानि के साथ करोडों डालर के हरजाने का मुकदमा किया। प्रेस के मामले में अमेरिकी अदालत बर्डन आफ प्रूफ आरोपी पर ही डालती है। भारत में इंदिरा गांधी की सरकार थी मोरारजी की लाख मिन्नतों के बाद उन्हें वो जरूरी दस्तावेज नहीं दिए गए जिससे वे अपनी बेगुनाही साबित कर सकें। अदालत से बाहर सेमूर यह स्वीकार कर चुके थे कि मोरारजी को लेकर उनकी सूचनाएं गलत थी। हमारे देश का प्रधानमंत्री देशद्रोह का दाग लिए हुए ही इसलिए ही मर गया क्योंकि सत्ताप्रमुख उनके विरोध में थीं और वे अपने विरोधी का ऐसा ही हश्र चाहती थीं।
ये कहानी यहाँ इसलिए कही ताकि हम सब ये जाने कि घपले-घोटालों और दुरभिसंधियों के पीछे कितनी घिनौनी राजनीति होती है जो सचाई तक पहुँचने की बजाय ऐसे घोटालों की सडाँध फैलाकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकना चाहती हैं।
यह सिलसिला नेहरूकाल से ही आ रहा है। पुराने सभी घोटालों को खंगालें तो पाएंगे कि अंत में कुछ नहीं मिला, किसी को भी सजा नहीं हुई। घाघ नेता यह जानते हैं कि वोटरों की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। कोई नया सनसनीखेज मुद्दा जोर से पटक दो तो उसकी याददाश्त गायब हो जाती है। 2014 के महाअभियान में कोल स्कैम, कालाधन और टूजी घोटाला ऐसे ही जोर से पटके गए थे कि देशवासी झनझना के रह गए, गुस्से से खौल पड़े। यह जाने बगैर कि अबतक सत्ता परिवर्तन के पीछे उछाले गए उन घोटालों का हश्र क्या हुआ।
जरा पिछले मामलों का जल्दी से रिकाल कर लेते हैं। इमरजेंसी के पहले इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के खिलाफ मारूति कांड उछला। उस समय यह कोल और टूजी से कम नहीं था। जनता पार्टी सत्ता में आई घोटाला भूल गई परिणाम क्या निकला शून्य बटे सन्नाटा। सन् 87 में राजीव गांधी के सहयोगी वीपी सिंह बोफोर्स और पनडुब्बी घोटाला को लेकर कांग्रेस से अलग हुए। राजा नहीं फकीर की छवि बनी। सत्ता पलटी वे प्रधानमंत्री बने, फास्ट ट्रैक से घोटाले की परतें खोलने की बजाय मंडल लेकर प्रकट हुए देश के सामाजिक तानेबाने का सत्यानाश किया, चलते बने। सैकड़ों करोड के प्रचारित पनडुब्बी घोटाले में 2005 में खात्मा लग गया। कोई दोषी नहीं मिला, न घोटाले की रकम लौटी। जिस बोफोर्स की नाल पर बैठकर वीपी सिंह दिल्ली के तख्त पर विराजमान हुए वही बोफोर्स करगिल युद्ध में काम आई। अब तक न किसी पर आरोप तय हुआ न ही दलाली के वे 68 करोड़ लौटे।
ऐसा नहीं है कि घोटाले होते ही नहीं। होते हैं पर जब उनका राजनीतिक प्रयोग खत्म हो जाता है तो जो उसी पर सवार होकर तख्त पर चढते हैं उसे उसी तख्त के नीचे दबाए रखना चाहते हैं। मुलायम, मायावती, करुणानिधि सभी के घपले उसी तख्त के नीचे दबे होते हैं इसीलिए हार के बावजूद मुलायम पतली गली से बेटे को लेकर प्रधानमन्त्री व सूबे के मुख्यमंत्री से मिलते हैं। करुणानिधि परिवार को प्रधानमंत्रीजी की कृपा हाशिल हो जाती है। लालू के यहाँ छापे क्यों पड़े? और अनुपातहीन दौलत का आरोप झेल रहे मुलायम, मायावती, करुणानिधि परिवार फिलहाल क्यों बचे हैं? क्या बताने की जरूरत है। राजनीति में हर कोई अपने लिए एक खिडकी खोलकर रखता है। न जाने कब किसकी कहाँ जरूरत पड़ जाए।
एक जो नया खेल शुरू हुआ है वह बेहद खतरनाक है। नौकरी के आखिरी साल या महीनों में नौकरशाह अचानक एक्टिविस्ट में बदल जाते हैं। चुनाव हुआ तो मौका देखके चौका मारने से नहीं चूकते पूर्व महालेखाकार विनोद राय ने कुछ इसी तरह का चौका मारा। परिणाम सामने है। उन्होंने जो मुद्दे दिए वे सत्ता के लिए सुनामी साबित हुए। सत्ता पाने वाले सत्ता पा गए और इन्हें भी खासा पुनर्वास मिल गया। यद्यपि अभी उँची अदालत में जाने का विकल्प है। सरकार निश्चित ही जायेगी क्योंकि उसके पास वे दस्तावेज भी होंगे जिसके आधार पर विनोद राय ने राय दी। और अब तो राय को ही आगे करके सरकार को अगला फैसला लेना
चाहिए। वैसे आईपीसी, सीआरपीसी में यह भी प्रावधान है कि झूठे आधार पर मुकदमा चलाने वाले के खिलाफ मुकदमा चले और लगभग वही सजा भी है जो गुनाह साबित होने पर दी जानी थी।
बहरहाल जनता को इन राजनीतिक प्रहसनों के बारे में कौन समझाए। जिसपर वो भरोसा करती है वही भावनाओं के सौदागर निकलते हैं। हम तो इसी उम्मीद में कायम हैं कि ये अँधेरा छँटेगा, कमल खिले या न खिले सूरज निकलेगा।