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बड़ा सवाल.गुजरात के बाद अब क्या..!

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Dec
22 2017

जयराम शुक्ल

गुजरात चुनाव के बाद कई  स्वाभाविक प्रश्न हम जैसे सहज जिग्यासुओं के दिल- ओ -दिमाग में उमड़ घुमड़ रहे हैं मुद्दतों बाद ऐसी दिलचस्प स्थिति बनी है कि जीतने और हारने वाले दोनों ही जश्न मना रहे हैं। बहरहाल जिन बातों की सबसे अधिक चर्चा हो रही है,वो ये कि- अगले साल भाजपा की बुनियादी ताकत समझे जाने वाले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान का क्या होगा ? मोदीजी की कार्यशैली और राजनीति में क्या तबदीली होगी ? नया दायित्व सम्हालने के बाद पार्टी और उसके बाहर राहुलजी की स्वीकार्यता किस तरह होगी? और आखिरी में देशवासियों के ये डेढ साल कैसे गुजरने  वाले हैं ?

गुजरात में जिस तरह मोदी को सबकुछ दाँव में लगा देना पड़ा और मुश्किल से सम्मान बच पाया उससे भविष्य का फौरी आँकलन किया जा सकता है। गुजरात के राजनीतिक विश्लेषण लगातार सामने आ रहे हैं, उसके हिसाब से तो ग्रामीण गुजरात ने कांग्रेस  पर ही भरोसा जताया  है। एक निष्कर्ष  सामने है- भाजपा को अहमदाबाद, सूरत, बडोदरा, राजकोट जैसे चार महानगरों में 55 में से 46सीटें मिली जबकि ग्रामीण गुजरात  की शेष  127 सीटें में से भाजपा को महज 53। यानी कि मोदी के गुजरात में भाजपा का प्रभाव शहरी दायरे में  सिमट गया है। गुजरात में भाजपा की ही। सरकार बनेगी यह तो कांग्रेस भी मान कर चल रही थी लेकिन उसका दायरा ऐसे भी बढ़ेगा उसे उम्मीद  नहीं  थी। कांग्रेस  के जश्न का यही सबब है।

जिस गुजरात का प्रतिनिधित्व मोदीजी  बतौर प्रधानमंत्री  कर रहे हैं,जब वहां की ये स्थिति है तो इन तीन प्रदेशों का चुनाव कितना भीषण होगा,अंदाजा लगाया जा सकता है। राजस्थान  के बारे में अभी से ही यह कहा जाने लगा है कि वह भाजपा के हाथ से निकल जाएगा।  म.प्र.व छग में आज की तारीख में फिफ्टी-फिफ्टी का मुकाबला मानके चल रहे हैं।  

मध्यप्रदेश में स्थित अभी से विकट  है।  किसानों तथा महिलाओं पर बढ़ते अपराध मुद्दे तो हैं ही,बेलगाम  नौकरशाही से सत्ता दल के ही लोग त्रस्त  हैं। पिछले दो चुनाव में जीत का तिलिस्म रचने वाले शिवराजसिंह चौहान के हर दाँव विफल से हो रहे हैं। दो सालों से समूची सरकार धार्मिक  आयोजनों में लगी है। सिंहस्थ, फिर नर्मदा परिक्रमा और अब आदिगुरु शंकराचार्य के नाम एकात्म संदेश यात्रा। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे आयोजनों में धर्मभीरु लोगों की भीड़ जुटती है पर यह वोट में भी बदल जाए कोई गारंटी नहीं। 19 दिसंबर को जब मुख्यमंत्री रीवा में एकात्म यात्रा का शुभारंभ  करते हुए प्रवचन दे रहे थे- जगत, जीव,जगदीश एक हैं,कोई ऊँच-नीच नहीं,सब बराबर हैं,तभी भीड़ से एक नौजवान  खड़ा हुआ और चिल्लाते  हुए बोल पड़ा - तो फिर ये आरक्षण क्यों? मध्यप्रदेश  में  पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सवर्ण विचलित हैं। चालीस से पचास हजार के ऊपर ऐसे कर्मचारी हैं जो रिटायरमेंट की दहलीज़ पर खड़े हैं और जिस पद पर भर्ती हुए थे वही बने हैं। यह आक्रोश जबरदस्त  है।  दिग्विजय सिंह सरकार  को इसी वर्ग के आक्रोश  को झेलना पड़ा था। 2004 के चुनाव में उनकी भी गणित थी कि दलित आदिवासी को जोडकर वे सत्ता में आ जाएंगे। धार्मिक आयोजन सवर्णों को रिझाते जरूर हैं पर मूल मुद्दे जस के तस कायम हैं,मुझे नहीं  लगता कि धार्मिक प्रपंच कोई नई हवा तैयार बनेगी।  

मध्यप्रदेश में यह अजीब विरोधाभास  है कि एक ओर  लगातार कृषिकर्मण पुरस्कार  मिल रहे हैं और दूसरी ओर किसान उबल रहे हैं।  सरकार  निश्चित  ही किसानों को खुश रखना चाहती है पर जमीन से कटी हवाहवाई नौकरशाही  ऐसी अव्यवहारिक योजनाएं  पेश कर देती है कि समस्या सुलझने की बजाय बढ़ जाती है। सरकार के खिलाफ  किसानों का मोर्चा भी खुला ही खुला है।  

छत्तीसगढ़ की तासीर भी लगभग ऐसी ही है। रमन सिंह के तरकश से सभी तीर निकल चुके हैं। राजस्थान  की वसुंधरा सरकार  अजीबोगरीब  निर्णयों के चलते चर्चाओं में है।  वैसे भी यहां के वोटर सरकारों को तवे की रोटी की तरह अलटते-पलटते रहते हैं। एक बात यह भी ध्यान  देने की जरूरत  है कि ये तीनों मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के समकालीन हैं।मोदी के दिल्ली  के सिंहासनारोहण के पहले ये लगभग बराबरी  के माने जाते थे। पार्टी में मोदी विरोधियों ने दबी या खुली जबान से इनके नाम भी आगे किए थे। इन तीन राज्यों को छोड़ दें तो किसी अन्य राज्यों  के चुनाव में किसी भी चेहरे को आगे करके चुनाव नहीं लड़ा गया। मोदी का ही चेहरा सामने  था।  इस रणनीति  में सिर्फ  बिहार और पंजाब  में विफलता  मिली। आज देश के 19 राज्यों  में भाजपा की सरकार  है।

 अहम सवाल यह है कि क्या इन तीन राज्यों में इन्हीं  चेहरों को आगे करके चुनाव लड़ा जाएगा या फिर मोदी यूपी-गुजरात  की भाँति यहां की कमान सँभालेंगे। यह तो तय है कि जिस तरह से मोदी ने अपना समूचा राजनीतिक  कौशल गुजरात में दाँव पर लगा दिया और सिर्फ लाज रखने लायक जीत हासिल कर पाए,इन तीन राज्यों  के लिए वे खुद को दाँव पर शायद ही लगाएं। ये तीन राज्यों  के चुनावों से ही 2019 के भविष्य  की इबारत लिखी जानी है।

गुजरात चुनाव के बाद कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि आने वाले  डेढ़ साल तक भाजपा  छाँछ भी फूँक फूँक कर पिएगी। संसद में मोदी को लेकर अवरोध चल रहा है वह किसी नीतिगत मुद्दे पर नहीं बल्कि गुजरात  चुनाव के दौरान उन्होंने मनमोहन सिंह पर जो आरोप लगाए थे उसकी माफी के लिए है। शब्दों की महत्ता अब कांग्रेस भी समझ गई  है।  नीच शब्द को मोदी ने जिस तरह दूसरे चरण में हुए चुनाव  की बाजी पलटने में भुनाया  उसकी कसक कांग्रेस  में गहरी है। वह मोदी की ज़ुबान से मनमोहन  सिंह  के लिए  निकले शब्दों का देशभर में राजनीतिक विपणन करना चाहेगी। इसलिए आगे भाजपा में रीति,नीति,बोली, भाषा,भूषा सभी में अंतर नजर आएगा। गुजरात  चुनाव में राहुल की भाषाई शालीनता मोदी की आक्रमकता पर भारी रही प्रायः सभी ऐसा मानते हैं। इसका असर साफ भाजपा में नजर आएगा। बड़बोले नेताओं  को जबान लगाम पर रखने की साफ हिदायत  दे दी गई  है।

आने वाले डेढ़ साल जनता के लिए आराम के हो सकते हैं। नोटबंदी, जीएसटी जैसे मुश्किल में डालने वाले एक भी फैसले नहीं लिए जाएंगे।  इस फरवरी का बजट करारोपण से मुक्त  रह सकता है। मध्यवर्ग  और अंत्योदयी वर्ग के लिए रियायतों की बारिश की संभावना मान सकते हैं। ऐसा इसलिए  कि 2019 की स्थितियाँ भिन्न 2014 से सर्वथा भिन्न  होगी।  इस बार पिछले  60 साल का हिसाब माँगने  से काम नहीं  चलेगा अपितु अपने पाँच साल के कामकाज का हिसाब  देना होगा।

पिछले चुनाव में कालाधन वापस लाने को लेकर जो बातें हुई थी और वायदे किए गए  थे उसकी भी तलबी होगी। हिंदी बेल्ट को छोड़ दें तो कर्नाटक के अलावा  ऐसे कोई राज्य नहीं  जहाँ भाजपा प्रभावी हो। अकेले हिंदी राज्यों  के दमपर दिल्ली में कोई भी राज नहीं  कर सकता। कांग्रेस के साठ साल के शासन के पीछे दक्षिण का बड़ा सहारा था। गठबंधन अवश्यंभावी है। दिल्ली में इस बार एनडीए पर भाजपा भारी रही। अब तो शायद  ही कोई गिना सके कि मोदी की सरकार में कौन कौन से दल शामिल हैं भाजपा के आगे क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व  का स्वाभाविक संकट है सो इस बार गठबंधन की गांठें  पिछले बार जैसे आसानी से नहीं बँधने वाली।

एक बड़ा सवाल और है कि क्या इस बार केंद्र  के चुनाव  भी गुजरात के तर्ज पर लड़े जाएंगे और विकास  का मुद्दा  गायब मिलेगा? मुझे लगता है कि ऐसा हो सकता  है। कांग्रेस  के कपिल सब्बल की राममंदिर की सुनवाई  को टालने को लेकर  सुप्रीम  कोर्ट  में दायर की गई याचिका को भाजपा ने जिस तरह उछाला उससे यही लगता है कि अगले चुनाव  में यह केंद्रीय  मुद्दा होगा। बड़ी उम्मीद तो यह लगती है कि मोदी सरकार चुनाव के पहले ही येनकेन प्रकारेण अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास  कराने में सफल हो जाएगी। कांग्रेस अब मुसलमानों के साथ वैसे खड़ी नहीं दिखना  चाहती। उसके कदम भी हिंदुत्व की ओर बढ़ चले हैं।  मुसलमान  सहमे हैं और उनकी प्रतिरोधक क्षमता पहले जैसे नहीं रही। इसलिए सुब्रह्मण्यम स्वामी की बातों  में दम लगता है। संघ भी यही मानकर चल रहा है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। सो यह मन बना कर चलें कि 2018 के अंत या 19 के शुरुआत  तक ऐसा हो सकता  है।  यह भाजपा का अब तक का सबसे  बड़ा मास्टर स्ट्रोक  होगा। फिर कहने की जरूरत  ही नहीं बचेगी कि दिल्ली में आगे भी कौन राज करेगा।

अब रही राहुल गांधी की बात। तो गुजरात चुनाव ने उन्हें नेता बना दिया। भाजपा के लोग उन्हें जितने ही हल्के में लेंगे या पप्पू-सप्पू कहके मजाक बनाएंगे उतने ही वे मजबूत बने जाएंगे। यह लगभग वैसा ही होगा जैसे एक समय काँग्रेसी मोदी का मजाक बनाते थे और मोदी और भी ताकतवर  हो जाते थे। राहुल के केबिनक्रू में इन दिनों समझदार लोग बैठे हैं  ऐसा लगता है। राष्ट्रीय अध्यक्ष  बनने के बाद वे बड़बोले और मसखरे नेताओं की छँटनी करेंगे। मणिशंकर अय्यार के निष्कासन  से कड़ा संदेश गया है। मनमोहन सरकार  के समय। बयानों की धींगामुश्ती करने वाले नेता अब शायद ही बर्दाश्त हो। नर्मदा परिक्रमा के बाद दिग्विजय सिंह नए अवतार में होंगे। वे अब यदि बटाला हाउस या आजमगढ के छोकरों की बात करेंगे तो बाहर कर दिए जाएंगे। कांग्रेस अब अपने को कायांतरित करना चाहेंगी। नेहरू -गाँधी वंश में जितना राहुल ने झेला  है उतना किसी ने नहीं। वे सबसे  ज्यादा तपे और उतनी ही धरती नापी है। मुश्किलों के बाद कांग्रेस फिनिक्स पक्षी की भाँति अपनी ही राख से उठ खड़ी होती है। फिलहाल  सुप्त ही सही लेकिन उसके  बीज समूची देश की भूमि में दबे हैं। उम्मीद रखिए आने वाला साल राजनीति की दृष्टि से नए तेवर व कलेवर वाला होगा।

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जयराम शुक्ल

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं.
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