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जब सत्ता लोकतंत्र हडपने पर आमादा हो तब सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पडेगी

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Nov
19 2018

पुण्य प्रसून बाजपेयी

पत्रकार का सवाल । राष्ट्रपति ट्रंप का गुस्सा । पत्रकार को व्हाइट हाउस में घुसने पर प्रतिबंध । मीडिया संस्थान सीएनएन का राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ अदालत जाना । देश भर में मीडिया की आजादी का सवाल उठना । अदालत का पत्रकार के हक में फैसला देना । ये दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की परिपक्वता है ।

पत्रकार का प्रधानमंत्री के दावे को ग्राउंड रिपोर्ट के जरीये गलत बताना । सरकार का गुस्से में आना । मीडिया संस्थान के उपर दबाव बनाना । पत्रकार के कार्यक्रम के वक्त न्यूज चैनल के सैटेलाइट लिंक को डिस्टर्ब करना । फिर तमाम विज्ञापन दाताओ से विज्ञापन लेने का दवाब बनवाना । अंतत: पत्रकार का मीडिया संस्थान को छोडना । और सरकार का ठहाके लगाना । ये दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश में लोकतंत्र का कच्चापन है ।

तो क्या भारत में वाकई लोकतंत्र की परिपक्पवता को वोट के अधिकार तले दफ्न कर दिया गया है । यानी वोट की बराबरी । वोट के जरीये सत्ता परिवर्तन के हक की बात । हर पांच बरस में जनता के हक की बात । सिर्फ यही लोकतंत्र है । ये सवाल अमेरिकी घटना कही ज्यादा प्रासगिक है क्योकि मीडिया की भूमिका ही नहीं बल्कि चुनी हुई सत्ता के दायरे को भी निर्धारित करने की जरुरत अब आन पडी है । और अमेरिकी घटना के बाद अगर मुझे निजी तौर पर महसूस हो रहा है कि क्या वाकई सत्ता को सीख देने के लिये मीडिया संस्थान को अदालत का दरवाजा खटखटाना नहीं चाहिये था । पत्रकार अगर तथ्यो के साथ रिपोर्टतार्ज तैयार कर  प्रधानमंत्री के झूठे दावो की पोल खोलता है तो क्या वह अपने प्रोफेशन से ईमानदारी नहीं कर रहा है । दरअसल जिस तरह अमेरिका में सीएनएन ने राष्ट्रपति के मनमर्जी भरे फैसले से मीडिया की स्वतंत्रता के हनन समझा और अदालत का दरवाजा खटखटाया , उसके बाद ये सवाल भारत में क्यो नहीं उठा कि सरकार के खिलाफ जिसकी अगुवाई पीएम कर रहे है उनके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखाटाया जाना चाहिये ।

ये किसी को भी लग सकता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति तो सीधे सवाल करते हुये सीएनएन पत्रकार दिखायी दे रहा है । सब सुन रहे है । ऐसा भारत मे तो दिखायी नहीं देता । फिर किसे कैसे कटघरे में खडा किया जाता है । तो जरा सिलसिलेवार तरीके से हालातो को समझे । जिसमें देश के हालात में कही प्रधानमंत्री नजर नहीं आते लेकिन हर कार्य की सफलता-असफलता को लेकर जिक्र प्रधानमंत्री का ही क्यो होता है । मसलन हरियाणा में योगेन्द्र यादव की बहन के हास्पिटल पर छापा पडता है तो योगेन्द्र यादव इसके पीछे मोदी सत्ता के इशारे को ही निसाने पर लेते है । उससे काफी पहले एनडीटीवी और उसके मुखिया प्रणव राय को निशाने पर लेते हुये सीबीआई - इनकमटैक्स अधिकारी पहुंचते है तो प्रणव राय बकायदा प्रेस क्लब में अपने हक की अवाज बुलंद करते है और तमाम पत्रकार-बुद्दिजीवी साथ खडे होते है । निशाने पर और कोई नहीं मोदी सत्ता ही आती है । फिर हाल में मीडिया हाउस  क्विंट के दफ्तर और उसके मुखिया के घर इनकम टैक्स का छापा पडता है । तो क्विट के निशाने पर भी मोदी सत्ता आती है । और इस तरह दर्जनो मामले मीडिया को ही लेकर कई पायदानो में उभरे । निशाने पर मोदी सत्ता को ही लिया गया । और सबसे बडी बात तो ये है कि जो भी छापे पडे उसमें कहीं से भी कुछ ऐसा दस्तावेज सामने आया नहीं जिससे कहा जा सके कि छापा मारना सही था । यानी किसी को भी सामाजिक तौर पर बदनाम करने के लिये अगर सत्ता ही संवैाधानिक संस्थानो का उपयोग करने लगे तो ये सवाल उठना जायज है कि आखिर अमेरिकी तर्ज पर कैसे मान लिया जाये कि भारत में लोकतंत्र जिन्दा है । क्योकि अमेरिका में संस्थान ये नहीं देखते कि सत्ता में कौन है । बल्कि हर संस्थान का काम है संविधान के दायरे में कानून के राज को ही सबसे अहम माने । तो क्या भारत में संविधान ने काम करना बंद कर दिया है । क्योकि सबसे हाल की घटना को ही परख लें तो कर्नाटक संगीत से जुडे टीएम कृष्णा का कार्यक्रम जिस तरह एयरपोर्ट अर्थरेटी और स्पीक-मैके ने रद्द किया और तो  निशाने पर मोदी सत्ता ही आ गई । और ध्यान दें तो कर्नाटक संगीत को लेकर बहस से ज्यादा चर्चा मोदी सत्ता को लेकर होने लगी । चाहे इतिहास कार रामचद्र गुहा हो या फिर नृत्यगना व राज्यसभा सदस्य सोनल मानसिंह या फिर पत्रकार- कालमनिस्ट तवलीन सिंह , ध्यान दे तो बहस इसी दिसा में गई कि आखिर संगीत कैसे भारत-विरोधी हो सकता है या मोदी विरोध को कैसे भारत विरोध से जोडा जा रहा है या मोदी सत्ता को निशाने पर लेकर लोकप्रिय होने का अंदाज संगीतज्ञो में भी तो नहीं समा गया । यानी चाहे अनचाहे देश के बहस के केन्द्र में मोदी सत्ता और लोकतंत्र दोनो है । और इसी के इर्द-गिर्द चुनावी जीत या वोटरो के हक को लेकर लोकतंत्र का ताना-बाना भी और कोई नहीं राजनीतिक सत्ता ही गढ रही है ।

तो ऐसे में रास्ता क्या होगा या क्या हो सकता है , ये सवाल हर किसी के जहन में होगा ही । यानी सिर्फ चुनाव का मतलब ही लोकतंत्र का होना है । चाहे इस दौर में सीबीआई की साख इतनी मटियामेट हो गई कि सुप्रीम कोर्ट में ही झगडा नहीं गया बल्कि जांच करने वाली देश के सबसे बडी एंजेजी सीवीसी यानी सेन्द्रल विजिलेंस कमीशन तकस अंगुली उटने लगे । और संघीय ढांचे पर खतरा अब ये सोच कर मंडराने लगे कि आज आध्रप्रदेश और बंगाल ने सीबीआई की जांच से नाता तोड उनके अधिकारियो पर राज्य में घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया । तो कल कई दूसरी केन्द्रीय एंजेसियो या संस्थानो पर दूसरे राज्य सरकार रोक लगायेगें । यानी सत्ता के जरिये केन्द्र-राज्य में लकीर इतनी मोटी हो जायेगी कि चुनावी हुई सत्ता की मुठ्ठी संविधान से बडी होगी । और ये बहस इसलिये हो रही है कि चुनी हुई सत्ता की ताकत संविधान से कैसे बडी होती है ये हर किसी के सामने खुले तौर पर है ।

तो ऐसे में पहल कौन करेगा । नजरे संविधान की व्याख्या करने वाले सुप्रीम कोर्ट पर ही जायेगी । लेकिन सुप्रीम कोर्ट को लेकर फिर ये सवाल उठेगा कि जनवरी में ही तो चार जस्टिस पहली बार चीफ जस्टिस के खिलाफ ये कहते हुये प्रेस कान्फ्रेस कर रहे थे कि " लोकतंत्र पर खतरा है ।" और न्यूज चैनलो के कैमरे ने इ वक्तव्य को कहते हुये कैद किया । और अब के चीफ जस्टिस रंजन गगोई ने ही जनवरी में लोकतंत्र के खतरे का जिक्र किया था ।

तो क्या ऐसे में अब चीफ जस्टिस रंजन गगोई को खुद ही कोई ऐसी पहल नहीं करनी चाहिये जिससे लोकतंत्र सिर्फ चुनावी वोट में सिमटता दिखायी ना दें । बल्कि देश के हर संवैधानिक संस्थान की ताकत हक किसी को समझ में आये । जनता से लेकर प्रोफेनल्स भी इस एहसास से काम करें कि देश में लोकतंत्र तो काम करेगा । जाहिर है ये होगा कैसे और जिस तरह मीडिया की भूमिका ही अलोकतांत्रिक हालात को सही ठहराने या खामोश रहकर सिर्फ सत्ता प्रचार में जा सिमटी है उसमें सत्ता का दवाब या सत्ता को संविधान की सीख देने वाला कोई है नहीं इसलिये है , इससे इंकार किया नहीं जा सकता । तो सुप्रीम कोर्ट यानी चीफ जस्टिस भी क्या करें ? ये सवाल कोई भी कर सकता है कि कोई शिकायत करें तो ही सुनवाई होगी । पर अगला सवाल ये भी हो सकता है कि कोई शिकायत करने के हालात में कैसे होगा जब संस्थानो तक पर दबाव हो ।

चूकिं लोकतंत्र का दायरा मोदी सत्ता से टकरा रहा है तो फिर ऐसे में टेस्ट केस एबीपी न्यूज चैनल को ही बनाया जा सकता है । क्योकि अन्य घटनाओ में अपरोक्ष तौर पर मोदी सत्ता दिखायी देती है । लेकिन एबीपी न्यूज चैनल के कार्यक्रम " मास्टरस्ट्रोक " में प्रधानमंत्री के दावे की पोल खोली गई । जिससे नाराज होकर मोदी सरकार के तीन कैबिनेट मंत्रियो ने ट्विट किया । उसके बाद जब जमीनी स्तर पर और ज्यादा गहराई से तथ्यो को समेटा गया और दिखाया गया तो मोदी सत्ता खामोश हो गई । यानी नियमानुसार तो तीन कैबिनेट मंत्रियो की आपत्ति को भी कोई चैनल अगर अनदेखा कर सच दिखाने पर आमादा हो जाये तो कैसी रिपोर्ट आ सकती है ये 9 जुलाई को बकायदा सच नाम से मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम में हर किसी ने देखा । लेकिन इसके बाद सत्ता की तरफ से खामोशी के बीच धटके में जिस तरह सिर्फ एक धंटे तक सैटेलाइट लिंग को डिस्टरब किया गया । जिससे कोई भी मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम ना देखे । और सैटेलाइट डिसटर्ब करने की जानकारी भी चैनल खुले तौर पर अपने दर्शको को बताने की हिम्मत ना दिखाये । और विज्ञापन देने वालो के उपर दवाब बनाकर जिस तरह विज्ञापन भी रुकवा दिया गया । उसकी मिनट-टू-मिनट जानकारी तो एबीपी न्यूज़ चैनल के भी पास है । और इसका पटाक्षेप जिस तरह न्यूज चैनल के संपादक को हटाने से किया गया और उसके 24 घंटे के बातर मास्टरस्ट्रोक कार्यक्रम देखने वाले एंकर हो भी हटाया गया । और उसके बाद कैसे सबकुछ ना सिर्फ ठीक हो गया यानी सैटेलाइट लिंक बंद होना बंद हो गया । विज्ञापन लोट आये । और चैनल की माली हालत में भी काफी सुधार हो गया । तो क्या सुप्रीम कोर्ट या फिर चीफ जस्टिस रंजन गगोई साढे तीन महीने पुराने इस मामले को टेस्ट केस बना कर मीडिया की स्वतंत्रता पर सत्ता से सवाल नहीं कर सकते है । क्योकि पहली बार सारे तथ्य मौजूद है । पहली बार केस ऐसा है कि अमेरिकी सत्ता  से कही ज्यादा तानाशाही भरा रुख या मीडिया की स्वतंत्रता हनन का मामला भारत में ज्यादा मजबूत है । ये अलग बात है कि एडिटर्स गिल्ड हो या प्रेस काउसिंल या भी न्यूज चैनलो की संस्था नेशनल ब्राडकास्टिग एसोसियशन , किसी ने भी कोई पहल तो दूर खामोशी ही इस तरह ओढी कि सिलसिला देश में अलग अलग तरीके से लगातार जारी है । क्योकि सभी लोकतंत्र के इस माडल को ही 2019 तक यानी वोट डालने के वक्त आने तक सही मान रहे है । या गलत मानते हुये भी खामोशी बरते हुये है ।

तो आखरी सवाल यही है कि जब चुनाव में ही लोकतंत्र सिमटाया जा रहा है और लोकतंत्र का हर खम्भा सत्ता को बनाये रखने में ही अपनी मौजूदगी दर्ज करने के लिये बेबस है तो फिर इसकी क्या गांरटी है कि 2019 के बाद लोकतंत्र संस्थानो के जरीये या फिर संविधान के जरीये जमीन पर नजर आने लगेगा । क्योकि 1975 के आपातकाल के बाद 2018 के हालात संविधान खारिज किये बिना सत्तानुकुल हालात बनाये रखने में कितने परिपक्व हो चुके है । ये सबके सामने है ।  और अब ये सीख देश को मिल चुकी होगी कि वोट से सत्ता बदलती है लोकतंत्र नहीं लौटता ।

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पुण्य प्रसून बाजपेयी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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